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नाटक

खंड-खंड अग्नि

दिविक रमेश


सूत्र

न कोई निरा व्यक्ति हो सकता है और न निरा समूह। व्यक्ति और व्यक्ति तथा व्यक्ति और समूह के बीच स्थिति विशेष की भी अत्यंत महत्व एवं हस्तक्षेपपूर्ण उपस्थिति होती है। यदि गतिशील स्थिति को केंद्र में रख लें तो व्यक्ति और समूह दोनों ही की स्थिति उपग्रहों जैसी मानी जा सकती है। कब किस पर ग्रहण लगे यह समय-चक्र निर्धारित करता है। इसी से आज के समय में 'चरित्र' की अवधारणा टूटी है और साहित्य में धीरे-धीरे स्थिति केंद्र में आती चली गई है। यह बात अलग है कि स्थिति का कोई स्थायी या एक ही केंद्र नहीं होता। यह स्थिति नियति का पर्याय नहीं है और न ही नियतिवाद तक की वाहक ही। बल्कि किसी समय और स्थान की मनोभूमि में उपजी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं से निर्मित, स्वीकार (समर्थन) और अतिक्रमण करती मानसिकता की ही पहचान है।

यह प्रश्न हमेशा उलझा हुआ रहेगा कि कहाँ व्यक्ति की (और समूह की भी) विवशता मान ली जाए और कहाँ उसकी कर्मण्यता पर आक्षेप। क्योंकि हर स्थिति में व्यक्ति (और समूह) का आकलन कुछ ऐसे प्रतिमानों पर होता आ रहा है जिसका आधार या जड़ें अधिकतर निकट या दूर के अतीत में होती हैं। यानी जिनकी समय और स्थान सापेक्षता एक ऐसे वर्तमान से होती है जो वस्तुतः होता ही नहीं और जो होता है उसकी न आवाज होती है, न उसका हस्तक्षेप होता है, प्रभुसत्ता का तो सवाल ही नहीं उठता। संभवतः आने वाला साहित्य-चिंतन अतीत के उसी कृशकाय वर्तमान को खोजने का प्रयत्न किया करता है या करता रहा है क्योंकि उसके हाथ उस अतीत के एक सशक्त भविष्य की सुविधा भी लग चुकी होती है।

प्रस्तुत कृति की मूल प्रेरणा वाल्मीकि कृत रामायण का एक प्रसंग विशेष है। युद्ध हो चुका है। लंका पर राम का आधिपत्य है। विभीषण राजा घोषित हो चुके हैं। युद्ध-विजय और सीता-स्वतंत्रता का समाचार देने के लिए हनुमान को अशोक वाटिका भेजा जाता है। विभीषण सीता को राम तक लिवा लाते हैं। क्रोधित राम पर-घर में रह चुकी सीता के प्रति न केवल उदासीनता प्रकट करते हैं बल्कि उसे स्वीकार करने से मना कर देते हैं और साथ ही सीता को कहीं भी जाने की स्वतंत्रता दे देते हैं। उनका मुख्य तर्क है कि हरण के समय जब सीता को रावण ने उठाया था तो अवश्य ही उसकी देह ने सीता की देह का स्पर्श किया होगा। राम के उस देहवाद ने वैदेही को जरूर चकित किया होगा। चकित होने की बात ही है। विवाह से पूर्व राम ने अहल्या जैसी ऋषि-पत्नी का उद्धार किया था जिसने वाल्मीकि-रामायण के अनुसार पति-वेश में आए इंद्र को पहचानकर भी न केवल उसके साथ समागम किया बल्कि उससे संतुष्ट होकर पति के आगमन से पूर्व ही उसे चले जाने का संकेत भी दिया।* ऐसी पत्नी को गौतम ऋषि द्वारा स्वीकार करने पर राम मौन ही रहे बल्कि खुश ही हुए होंगे। दूसरों के संदर्भ में राम के हृदय की उदारता का प्रमाण बाली-सुग्रीव प्रसंग में भी मिलता है। बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा को बलपूर्वक अपने घर में रख लिया था तथा उससे कामेच्छा की पूर्ति भी करता था। राम ने सुग्रीव की सहायता कर रूमा को बाली के चंगुल से छुड़ाया था तथा सुग्रीव ने परवश पर-पुरुष के घर रह चुकी रूमा को सहर्ष स्वीकार कर लिया था जिस पर राम की कोई विपरीत टिप्पणी नहीं हुई। कदाचित इसीलिए सीता राम की बात पर न केवल दंग रह जाती है बल्कि प्रश्नाकुल भी प्रतीत होने लगती है। तब भी अपने युग की मानसिकता के बोझ तले वह यही कह पाती है कि यदि उसे स्वीकार न करना तय था तो (यहाँ लाकर अपमानित करने की अपेक्षा) हनुमान से अशोक वाटिका में ही उसकी सूचना भिजवा देते ताकि सीता वहीं अपने को समाप्त कर लेती।

किंतु इस सारे प्रसंग का जो अत्यंत महत्वपूर्ण और आघातपूर्ण (शॉकिंग) पक्ष है, वह दूसरा है जो सूक्ष्म होते हुए भी अपने भीतर सोच की अनंत संभावनाएँ लिए हुए है। सीता के मन में एक सहज प्रश्न उठता है जिसे वह राम के समक्ष रखती है। सीता जानना चाहती है कि युद्ध के बाद यदि सीता को स्वीकार ही नहीं करना था तो उसके लिए वह कष्टदायी युद्ध ही क्यों किया गया? बातचीत (या तर्क-वितर्क) में राम का एक ऐसा कथन भी था जिसने उस समय की सीता को भी अवश्य हिला दिया होगा, आज का व्यक्ति तो हिलेगा ही हिलेगा।

कथन इस प्रकार था -

विदितश्चास्तु भद्रं ते तोअयं रणपरिश्रमः।
सुतीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः।।
(युद्ध कांड/115/15)
रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वतः।
प्रख्यातस्यात्मवंशस्य नयड़्ंग च परिमार्जना।।
(युद्ध कांड/115/16)

अर्थात 'तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो युद्ध का परिश्रम उठाया है तथा इन मित्रों के पराक्रम से जो इसमें विजय पाई है, यह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है।

सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए ही यह सब मैंने किया है।'

वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में वर्णित उक्त कथन से जब पहले पहल मेरा सामना हुआ तो पत्नी सीता के संदर्भ में राम के वंशवाद या कुलवाद से मैं भी हिल गया। मैंने रामचरित मानस सहित राम संबंधी अनेकानेक ग्रंथों एवं कृतियों में इस प्रसंग-विशेष को खोजा, पर इस प्रसंग की भयावहता के दर्शन कहीं नहीं हुए। कम से कम मुझे कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला। मिथ या पुरा-कथा या इस प्रकार के प्रसंगों को केंद्र में रखकर लिखने के प्रति मैं विशेष उत्साहित भी कभी नहीं रहा हालाँकि कई बार ललकता जरूर रहा हूँ। यूँ भी, आज के संदर्भों में, मेरी मान्यता है कि मिथ या पुरा-कथा कथ्य या उद्देश्य की अपेक्षा शिल्प अर्थात क्राफ्ट या अभिव्यक्ति-उपादान ही अधिक हो सकता है - बल्कि वही होता है। कम से कम श्रेष्ठ कृतियों में। खैर, यह प्रसंग मुझसे निरंतर टकराता रहा और अपार बेचैनी पैदा करता रहा। मेरे सामने समस्या यह थी कि एक ओर मैं पुरा-कथा (या इतिहास कथा ही सही क्योंकि फिलहाल यह विवाद यहाँ प्रासंगिक नहीं है।) के सौंदर्य, उसकी युगधर्मा गरिमा को भी नहीं भंग करना चाहता था और दूसरी ओर अपने युग की, अपने समय की मानसिक टकराहट के प्रहारों से भी नहीं बच सकता था। ऐसी स्थिति में मेरे समक्ष राम कुलबद्धता के प्रतीक के रूप में उभरते चले गए और सीता संबंध के उत्तरदायित्व के रूप में। लेकिन बात अब भी नहीं बन रही थी। ऐसा भी नहीं था कि मुझे पुरा-कथा से खेलने का थोड़ा बहुत भी अभ्यास न हो। मैं इसके पूर्व, एक दूसरी योजना के अंतर्गत, दो लंबी-लंबी कविताएँ 'कवि-चिंतन' (संदर्भ वाल्मीकि) और 'प्रश्न चिन्ह' लिख चुका था जो क्रमशः चंडीगढ़ की पत्रिका अभिव्यक्ति-3 (दिसंबर-मार्च, 1978-79) और नए पुराने नामक पत्रिका के वर्ष 2 अंक 2-3 में प्रकाशित भी हुई थीं। (अब 2010 में प्रकाशित मेरे कविता संकलन "वह भी आदमी तो होता है" में संग्रहीत हैं)।

पिछले दो सालों में यह प्रसंग मुझे और भी कटोचने लगा। और एक दिन मुझे खास ट्रीटमेंट हाथ लग गया। न सही व्यक्ति, न सही लोग, सृष्टि में कुछ और भी तो हो सकता है जो उन चीजों को भी अभिव्यक्त कर सकता है जिनका एक समय-स्थान में अभिव्यक्त होना अविश्वसनीय लग सकता है। मुझे पात्र मिले सन्नाटा, विश्वास, सूचना, उद्घोषणा, संदेह आदि। यह मेरे लिए उपलब्धि थी और मार्ग प्रशस्ति भी। बस अब एक ही समस्या थी कि ये पात्र छायावादी मानवीकरण से बच सकें और मुझे विश्वास है कि उनमें से हरेक ने उससे बचने की कोशिश की है और बच भी सके हैं।

मुझे यह भी लगा है कि सीता पर पहला आघात तो तब ही हुआ होगा जब युद्ध-विजय के बाद उसने अपने पति राम के स्थान पर पहले हनुमान और बाद में विभीषण को पाया होगा। सीता की मानसिकता से सोचें तो उसने सहज रूप में यही कल्पना की होगी कि राम, जो उसके पति हैं, कैदी-प्रताड़ित निर्दोष सीता के रिहा होते ही, सबसे पहले दौड़कर उसके पास आएँगे और उसे गले से लगा लेंगे - वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्र, पुत्री, बहन, माँ, पिता या अन्य आत्मीय संबंध के प्रति व्यवहार करता है।

शेष इस कृति के मननकर्ता समझें। मुझे विश्वास है यह उनके स्नेह का भाजन अवश्य बन सकेगी।

अंत में इतना और कि इस कृति को इस रूप में जान बूझकर लचीला रखा गया है कि जहाँ इसे मंच पर नाटक के रूप में प्रस्तुत करने की सुविधा रहे वहाँ नृत्य-नाटिका के रूप में भी प्रस्तुत किया जा सके। दूरदर्शन और रेडियो माध्यमों को भी ध्यान में रखा गया है।

मैं सर्वश्री नेमिचंद्र जैन, असगर वजाहत, केवल सूद, एन.के. शर्मा, देवेंद्रराज अंकुर, श्याम विमल, वी.के. जोशी, महेश आनंद, प्रताप सहगल, प्रेम जनमेजय हरीश नवल, विजय विजन, डॉ. देवदत्त कौशिक, डॉ. विनय जैसे मित्रों और अपनी पत्नी डॉ. प्रवीण शर्मा के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने इस कृति का वाचन किया और अपने सुझावों एवं प्रतिक्रिया से अवगत कराया।

वाणी प्रकाशन के श्री अरुण माहेश्वरी को मेरी इस प्रथम अनूठी कृति को छापने का श्रेय है। मैं इस स्नेह के लिए उनका ऋणी हूँ।

दिविक रमेश

1. मुनिवेशं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनंदन।
मति चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्! ।।
          बालकांड /48/19
अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो।।
          बालकांड /48/20
आत्मानं मां च देवश सर्वथा रक्ष गौत्मात्।
          बालकांड/48/20/1/2

अर्थात्

''रघुनंदन! महर्षि गौतम का वेश धारण करके आए हुए इंद्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने 'अहो! देवराज इंद्र मुझे चाहते हैं' इस कौतूहलवश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।''

''रति के पश्चात उसने देवराज इंद्र से संतुष्ट होकर कहा - 'सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गई। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइए। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिए।'

पात्र

उद्घोषणा
सन्नाटा
अग्नि
जन-समूह
राम
हर्ष
सूचना
सीता
हनुमान
सरमा (विभीषण की पत्नी)
विश्वास
लक्ष्मण
सुग्रीव
उत्तरदायित्व
संदेह
उत्सुकता
पृथ्वी

(नोट : उद्घोषणा, सन्नाटा, हर्ष, सूचना, उत्सुकता, विश्वास, उत्तरदायित्व, पृथ्वी और संदेह ऐसे पात्र हैं जो शेष पात्रों के लिए अदृश्य हैं।)

 

[1]

( दूर से उद्घोषक संगीत सुनाई पड़ता है। तीव्र होता है और फिर मंद हो जाता है। मंच पर उद्घोषणा की उपस्थिति हो जाती है। एक ओर से आकर वह दूसरे कोने में खड़ी हो जाती है। उसी ओर से उसी कोने में काले वस्त्र पहने सन्नाटा भी दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ा हो जाता है। प्रकाश उद्घोषणा पर। )

उद्घोषणा : (प्रसन्नचित)
विजयी हुए हैं राम...?
त्याग कर निद्रा, बाँध कर समुद्र
विजयी हुई है राम की प्रतिज्ञा!
विजयी हुई है प्रतीक्षा राम की।
सुने सब
हर्ष-विषाद, काल-अकाल
मृत-जीवित, सुनें सब
मुझ उद्घोषणा को।
समाप्त हुई है प्रभुसत्ता रावण की।

( सन्नाटा की ओर देखती है। निस्तब्धता के बीच प्रकाश सन्नाटा पर केंद्रित होने लगता है। )

तुम्हें क्या साँप सूँघ गया है सन्नाटा?

 

सन्नाटा : ( व्यंग्य से )
मात्र प्रभुसत्ता ?
आ हाहा हाहा
मात्र प्रभुसत्ता ?
कोई और शब्द चुनो मित्र, कोई और शब्द।
क्या सचमुच नहीं दीखती तुम्हें
खंडहर सी
वीरान पड़ी यह लंका
टिकाए
ओठों पर उँगली।
 

उद्घोषणा : ( गंभीर स्वर )
हाँ! वीरान पड़ी है लंका, महामौन।
और मैं ?
मुझे तो बोलना है निरंतर।
गर्जना है हर क्षण समुद्र सा।
मैं नहीं हो सकती मूक तट के रेत सी।
मुझे तो बोलना है।
जब भी जो चाहा है विजेता ने, मुझे तो बोलना है।
नहीं मैं
कुछ भी अपने से
उद्घोषणा हूँ मैं।

 

सन्नाटा : और मैं ?
(अत्यंत गंभीर होकर )
निस्तेज
महाचुप्पी में डूबी
क्या लाशें हूँ योद्धाओं की ?
या हूँ रावण-दासियों के
भीतर तक छाई हुई निस्तब्धता ?
या अतिरेक में
चुप्पी हूँ हर्ष की
सीता के मुख पर ?
क्या हूँ ?
संभव हुआ हूँ किस से ?

 

उद्घोषणा : (खुश होकर) हाँ
सीता भी सुने
(चारों ओर स्तब्धता दिखती है )
शायद सीता ही सुने।
विजयी हुए हैं राम युद्ध में
मायावी नहीं मैं
सबूत है
नतमस्तक पराजय रावण की।

 

सन्नाटा : ( गंभीर होकर )
हाँ
और साक्षी हूँ मैं
मैंने देखा है अट्टहासों को
खुद मुझ में बदलते हुए
विजयी हुए हैं राम और खुद मैं भी।
उद्वेलित हों चाहे मन में
खुद राम पर
फहरा रही है मौन की पताका
जानता हूँ, शायद मैं ही जानता हूँ
कौन सी है हलचल
जो खाए जा रही है राम को।
कुछ क्षण पहले
युद्ध में संलग्न
समग्र राम
मैंने देखा है उन्हें
बिखरते बिखरते।

 

उद्घोषणा : और सीता ?

(उद्घोषणा का धीरे - धीरे मंच से प्रस्थान सन्नाटा अपने में ही डूबा है। )

 

सन्नाटा : (चिंतन)
कौन समझ पाया है मुझे
मेरी गहराई को
सिवा उसके
छाया होता हूँ जिस पर मैं।
चुप्पी है पूरी लंका में।
यहाँ तक सुना जा सकता है
हर्षोल्लास राम के शिविर का।
पर सीता ?
क्या सचमुच चुप है सीता भी ?
मगर क्यों बोलूँ मैं
चुप रहना है मेरा स्वभाव
दुबके हुए रहस्य सा
महाचुप !
पड़े रहना है
ओठों पर लगाए अर्गला ?
(चौंक कर )
कहाँ गई उद्घोषणा ?
निकल गई है शायद दूर।
पूरा होते ही उद्देश्य
कितनी निरर्थक हो जाती है साधना।
या शायद निरर्थक हो जाता है साधक ही ?
पर सिद्धि ?
(व्यंग्य और निराशा का मिश्रित स्वर )
बस सिद्धि ही गाई जाती है परिणाम की तरह
उठाई जाती है कंधों पर विजेता सी
और पड़ी रह जाती है कोने में
आम जन सी साधना
खिसियाई।
चलूँ
जरा पीछा करूँ
उद्घोषणा का।
(मंच से जाता है पर कुछ क्षणों बाद लौट आता है। )

सन्नाटा : (दर्शकों की ओर देख कर )
कितनी खुश है उद्घोषणा
निकल गई
फिर निकल गई विचार सी दूर
कर्तव्य तक ही सीमित हैं हम
हमारा संस्कार है
पालन करना।
हम नहीं हैं प्रश्न
कितनी खुश है उद्घोषणा ?
चलता हूँ। ढूँढ़ता हूँ उसे
जरूर गई होगी राम के शिविर में।
कितनी खुश है उद्घोषणा !
(चला जाता है। )

[2]

(मंच पर धीरे - धीरे प्रकाश उभरता है और क्षणों में ही पूरे मंच पर अग्नि - प्रकाश फैल जाता है। अग्नि ( पात्र ) चिंतित और प्रश्नाकुल स्थिति में दृष्टिगत होता है। यह प्रभाव संगीत के द्वारा भी दिया जा सकता है। )

अग्नि : अग्नि हूँ मैं
नहीं हूँ सूत्रधार
रह गया हूँ एक पात्र भर ।
समझा जाता हूँ देवता
नहीं जानता
भय से... या मोह से ?
बनाया होगा देवता मुझे इतिहास ने
वैदिक हूँ मैं
सदियों से आ रहा हूँ पुजता।
शुद्ध कर्ता ही नहीं
मुझे माना गया है
शुद्धता का माप भी
लोक-साक्षी हूँ मैं
नहीं जानता
पूजा है या गुण
गिरने नहीं देता जो मुझे
महिमा की मचान से
पर
सिर्फ जानता हूँ मैं ही
अनुचर होकर
मुझे लगा है अपना रूप
कभी कभी शाप भी।
(प्रश्नाकुल होकर। माथे पर सलवटें )
सुन रहा हूँ
किया जा रहा है संदेह
सीता पर -
यह कैसी परीक्षा है मेरी ?
निरा अग्नि नहीं हूँ मैं
पति हूँ मैं भी स्वाहा का।
क्या सोचेगी स्वाहा
धिक्कारेगी नहीं क्या
वह कन्या प्रजापति (दक्ष प्रजापति) की ?
सामना कर सकूँगा क्या
अग्नि से भी ज्वलंत
अग्नि-क्षेपक नेत्रों का ?
(परेशान सा )
उफ् !
यह कैसी परीक्षा है मेरी ?
यह कैसा कुचक्र है ?
आंदोलित है, मेरा देवत्व ही !
(हताश स्वरों में )
पर कहाँ हूँ सूत्रधार
रह गया हूँ
एक पात्र भर बन कर
चलता हूँ
फिर आना होगा मुझे
पात्र हूँ मैं
काश ! हो पाता हस्तक्षेप
समय के शिविर पर !
अभी तो मुझे जलना है । केवल जलना है धूँ धूँ।
(अग्नि चला जाता है। मंच पर प्रकाश भी गायब हो जाता है।
अब किसी भी प्रकार की ध्वनि नहीं। )

[ 3]

(राम का शिविर स्थल। स्थान - स्थान पर हर्षोत्सव मनाए जा रहे हैं )
एक जन समूह का सामूहिक गान -
जय हो राम जय हो राम
जय हो राजा राम की।
तुम्हें बधाई, हमें बधाई
जय हो राजा राम की।
हम जीते हैं तुम जीते हो
जय हो राजा राम की।
राम न होते तो क्या होता
जो होता था वो ही होता
रावण के हम चाकर होते
हम भोजन वह भक्षक होता
जय हो राम जय हो राम
जय हो राजा राम की
हम जीते हैं, तुम जीते हो
जय हो राजा राम की।
मूरख था सीता को पकड़ा
दिया राम ने अच्छा रगड़ा
पति धरम को खूब निभाया
सिया सती को अजी छुड़ाया
हम जैसे साधारण नाहीं।
और लोक से ये हैं आहीं।
जये हो राम जय हो राम
जय हो राजा राम की।
हम जीते हैं तुम जीते हो।
जय हो राजा राम की।
(राम का एकांत में चिंतन। सन्नाटा और उद्घोषणा छिपे हुए हैं। )

 

राम : (एकांत में द्वंद्व-विचलित )
नहीं ! नहीं !
मैं नहीं हो सकता लोकोत्तर
अपवाद नहीं हूँ मैं अपनी दृष्टि में।
स्वीकार्य है मुझे, स्वीकार्य है
हूँ मैं संदेहग्रस्त
केवल व्यक्ति नहीं हूँ मैं, न आत्मा ही
एक वश भी हूँ, लोक भी हूँ।
राम
एक समाज भी है
जन्मना-देहधारी।
नहीं है राम का कोई व्यक्तिगत संदर्भ।
शायद इसीलिए
माना जाता हूँ भगवान भी।

(सन्नाटा और उद्घोषणा छिपे - छिपे ही धीमी आवाज में बात करते हैं )

 

सन्नाटा : (व्यंग्य मुद्रा)
सुना तुमने उद्घोषणा
सुना तुमने राम को और समझा भी ?
पर कहाँ सुन सकती हो तुम ?
सुनाना ही धर्म है तुम्हारा तो
नहीं हो न
किसी वाचाल स्त्री से कम
(हँसता है।)
(गंभीर होता है।)
पर मैं हूँ
जो सुन सकता है
आदमी को भीतर से भीतर तक
सन्नाटा हूँ मैं
जितना गहन होता हूँ
उतना ही स्पष्ट हो जाता है आदमी मुझमें।
मैंने सुना है राम को
सूखे बाँस-तन सा
खा रहा है रगड़ हृदय
राम का।
(मुँह बनाते हुए )
उहूँ।
कहते हैं, नहीं है राम का कोई व्यक्तिगत संदर्भ !

उद्घोषणा : (भोलेपन से )
पर मैंने तो कुछ नहीं सुना
न ही सुनाया गया है मुझे कुछ नया।
आखिर क्या है जो छिपाया गया है मुझसे ?
मुझे क्यों लग रहा है डर तुम्हारी बातों से?
मेरा क्यों डिग रहा है उत्साह ?
कहो, कहो कि यह तुम्हारी ईर्ष्या है।
पर तुम, तुम चुप क्यों हो इतने
यही घड़ी जबकि हर ओर उल्लास है
तुम क्यों दिख रहे हो मनहूस से।
(गंभीर होकर तथा थोड़े भय के साथ )
मैंने देखा है तुम्हें, सन्नाटा, देखा है तुम्हें
तुम जितना हो गए हो चुप
उतना ही उलझा है पेड़ों में कोहरा।
अँटी हैं तमाम राहें उतनी ही धूल से।
कितना कठिन हुआ है कुछ भी सूझना
और उद्घोषित करना मेरे लिए।

राम : (एकांत में)
केवल पति नहीं है राम
है वंश भी
और मात्र वंश भी नहीं
समाज है पूरा।
मूल्य है राम
एक आस्था है ब्रह्मांड की।
(इधर - उधर देख कर )
हाँ। समाज भी है राम
कोई रह जाए स्तब्ध सुनकर
तो रहे
कुल भी है राम
कोई हो जाए भ्रमित
तो भी स्वीकार है राम को।
नहीं कर सकता राम
स्वीकार
अपना ही विग्रह।
न सही सीता पर
पर क्यों न करे राम
संदेह रावण पर ?
ये जो शांत लहरों से
नजर आते हैं जन-समुदाय
बंधे हैं
शासक की साँकलों में।
होते ही जर्जरित साँकलें
धर दबोचेंगे वर्तमान को।
बोल उठेंगे ये
उठी हुई उँगलियों की भाषा में।
(दृढ़ता के साथ - लेकिन थोड़े अपराध - बोध के साथ भी )
नहीं
राम नहीं कर सकता स्वीकार
देहधारी सीता को।

सन्नाटा : (कानों पर हाथ रखकर निराशा के साथ )
नहीं, नहीं, नहीं
मैं नहीं हूँ कान
एक स्थिति भर हूँ
मैं कुछ नहीं सुनता
नहीं सुनना चाहिए मुझे कुछ भी
पर अभागा भी हूँ कितना
सुन सकता हूँ आदमी को
भीतर से भीतर तक
गुण सकता हूँ।
भले ही
कालबद्ध हों जनसमुदाय
मैं कालातीत हूँ।
(हर्ष का एक ओर से प्रवेश। सारा प्रकाश हर्ष पर। दृश्य अशोक वाटिका का। प्रसन्नचित है हर्ष )

हर्ष : हर्ष हूँ मैं।
मैंने सुना है उद्घोषणा को
हर्ष हूँ मैं।
(सब ओर देखते हुए )
सब गाओ आज विजय गीत।
विजयी हुए हैं राम
तोड़ो यह सन्न चुप्पी।
सुना है न
पूरी की है प्रतिज्ञा राम ने।
किया है मुक्त सीता को
बाँधकर समुद्र।
सुना है न
विजयी हुए हैं पति सीता के।
सीता ?
भर्तुर्विजयकांक्षिणी
(प्रकाश - फिर सन्नाटा पर )

सन्नाटा : ( परेशान )
उफ्क्यों
नहीं हो जाता मैं बहरा।
(दोनों हाथ जमीन की ओर। प्रकाश - निर्मित समुद्र की ओर फैलाकर )
आ समुद्र आ
ले समाहित कर मुझे अपने घोष में।
कर दे मुझे बहरा ध्यानस्थ मुनि सा।
कर दे मुझे बहरा आत्मलिप्त राजा सा।
यह कैसी भूमिका है मेरी
एक खोखला अंतराल भर हूँ मैं।
(माथा पकड़कर घुटनों के बल बैठ जाता है। मंच पर अँधेरा छा जाता है। सूचना का प्रवेश )

सूचना : (उदासीनता और निराशा के भाव से )
हाँ मैं विवश हूँ
विवश हूँ मैं दास सी
नहीं झूम सकती सौभाग्य कह ?
सूचना हूँ मैं - स्वायत्त
(व्यंग्य की हँसी हँसती है )
स्वायत्त !
हाहा हाहा (अट्टहास)
(उदास और गंभीर होकर रहस्यमय मुद्रा में )
उतना ही स्वायत्त
जितना चाहते हैं स्वामी।
(राम की ओर देखती है - हल्की मुस्कान ओंठों पर )

राम : (एकांत में - आत्म चिंतन)
हूँगा मैं देवता
भगवान
अंतर्यामी
सब कुछ।
पर छिपा तो नहीं सकता कोई अपना रूप
खड़ा हो जाए अगर
दर्पण के सामने।
थिर जल में
साफ दिखता है चेहरा।
पुरुषोत्तम ही सही
आदमी हूँ मैं
पुरुष हूँ भीतर तक पूरा
कैसे ग्रहण करूँ
सीता को ?
कोई वस्तु तो नहीं है न सीता
न कोश
न शस्त्र
न भूमि ही ?

सूचना : (उदासीनता - व्यंग्य )
सूचना हूँ मैं
स्वायत्त
(अट्टहास करती है)
उद्घोषणा नहीं
सूचना हूँ - तटस्थ
न मैं हर्ष हूँ, न विषाद
एक सपाट चेहरा हूँ -
उगलती हुई शब्द।
(दर्शकों की ओर चेहरा कर )
जानती हूँ
क्या असर होगा किस बात का।
जानती हूँ
कौन बात कहाँ के लिए होती है उपयुक्त।
पर सूचना हूँ मैं - मुझे कुछ नहीं सोचना।
मुझे खुद गला घोटना होता है अपनी जानकारी का !
मैं सूचना हूँ महज
अपना जिसका कुछ नहीं 'स्वायत्त'।

राम : (एकांत में विवशता के भाव के साथ )
आह !
कितना सुखद होता है
रहना कार्यरत।
कितना सुखद होता है
संघर्ष लक्ष्य का।
और कितना कठिन होता है।
समय निर्णीत।
यह चिंतन
जो चल रहा है मेरे भीतर
कहीं बोध तो नहीं
होने वाले अपराध का।
कहीं पलायन तो नहीं
सीता के तेज से ?
(मानो सचेत होते हैं )
नहीं नहीं
यह किस राह चल दिया मैं विपरीत !
देखता हूँ
चेहरों को देखता हूँ।
(सब ओर हाथ घुमाकर )
राजा बनकर देखता हूँ चेहरों को।
उजागर न सही
पर भीतर से क्यों लगते हैं मुझे
सब राम ही।
नहीं
सीता नहीं है कोई आम नारी
भावी महारानी है
'खबर' है वह।
हर व्यक्ति
जो खबर है अपने मूल में
नहीं हो सकता
साधारण जन सा।
(सोचते हुए )
मुझे फिर करनी होगी एक तैयारी।
फिर लड़ना होगा एक युद्ध।
कितना अभागा है राम।
यह शांत, गंभीर पुरुषोत्तम
कितना अभागा है
जिसे लड़ने ही हैं युद्ध
जमीन हो या मनोभूमि।
जिसे लड़ने ही हैं युद्ध
और दिखना है शांत, निर्द्वंद्व भी।
मुझे होना ही होगा तैयार
एक अपरिचित भूमिका के लिए।


सूचना : (उदासीनता एवं गांभीर्य )
पर तय है न मेरी भूमिका तो। सूचना जो हूँ ?
चलती हूँ
देखती हूँ क्या सूचित कर रहे हैं हनुमान
सीता को
(दर्शकों की ओर कुटिल मुस्कान )
याद रहे
स्वायत्ता हूँ मैं
उतनी ही
जितना चाहते हैं स्वामी।
(मंच पर अंधकार )


[4]

( अशोक वाटिका। राक्षसनियाँ खड़ी हैं। विभीषण पत्नी सरमा ( सीता की हितैषणी ) भी मौजूद है। सीता के समक्ष हनुमान हाथ जोड़े खड़े हैं। एक कोने में हर्ष है )

हनुमान : (विनीत होकर )
माँ !
हम धन्य हुए।
विजयी हुए हैं श्री राम माँ !
हम स्वतंत्र हैं।
(सीता के मुख पर अपार प्रसन्नता पर चुप्पी साधे हुए )

हर्ष : (धीमे धीमे )
हर्ष हूँ मैं
चुप्पी है
अतिरेक मेरा ही।
हर्ष हूँ मैं।
ज्वार हूँ
हृदय में सीता के
मैं धन्य हूँ।
बढ़ता हूँ
ज्यों ज्यों देखता है हृदय
सीता के मुख को।
सँभलता हूँ... सँभलता हूँ।

(ऐसी मुद्रा बनाता है मानो सीता को हर्षातिरेक की स्थिति से उबार रहा हो। चला जाता है। )


सीता : ( खुश होकर संतोष से )
तो माया नहीं थी उद्घोषणा।
हनुमान !
तुम प्रमाण हो सृष्टि के।
जानती थी मैं
विजयी ही होंगे राम।
मैंने कभी नहीं मानी हार
मेरा मन जानता है।


हनुमान : तुम ही हो माँ
जीते हैं प्रभु
तुम्हारे ही पथ-बल पर।


सीता : ( हर्ष के साथ थोड़ी झुँझलाहट भी )
ओ !
मुझे नहीं चाहिए कीर्ति
मुझे नहीं चाहिए श्रेय,
स्तुति। (रुक कर)
कैसे हैं प्रभु
आदेश क्या उनका

सरमा : समझें हनु
समझें सीता को। सीता की उत्सुकता को।
अब ठीक नहीं और देरी।
साक्षी है यह सरमा - भार्या विभीषण की,
साक्षी है सीता के मन की।
वह सेतु
जो पड़ा है भंग अब तक
उसे जोड़ें हनु !
(विचार मुद्रा में )
बहुत कठिन होती हैं ये नदियाँ मन की।
अब कह भी दें।
कह भी दें - संदेश प्रभु के मिलन का।

हनुमान : ( सीता की स्थिति को समझते हुए )
माँ !
निश्चिंत हों आप अब
प्रभु का संदेश है
उपनिवेश है अब लंका
घर है आपका।
संतुष्ट हैं प्रभु।
हुई है प्रतिज्ञा पूरी
आपके उद्धार की।
सार्थक हुआ है समुद्र का बँधना,
नींदें व्यर्थ करना रातों की
और वध
रावण का !
अब राजा हैं विभीषण
भक्त
यानी मित्र हैं प्रभु के।

सीता : ( राहत की साँस लेते हुए )
मैं धन्य हूँ
चंद्रमा आ
आ मुझ पर छा जा।
(कुछ रुकती हैं , सोचती हैं और रहस्यमयी दिखती हैं )
साधारण नहीं है यह संदेश !
साधारण रहा ही कब
सीता के जीवन में ?
श्रृंखला है सीता
असाधारण की।
तत्पर है सीता।

(कुछ और जानने के लिए हनुमान की ओर देखती हैं। तदंतर लाचार सी सरमा को निहारती है। )


सरमा : वह बात भी कहो न हनु
जिसे नहीं कह पा रहे आप
आदेश ही क्यों न हो जो
जिसे सुनने को
सीता ने की है प्रतीक्षा
समझें हनु, कुछ तो समझें।


सीता : ( प्रश्नाकुल )
क्यों है शून्य हनुमान
क्यों नहीं हो रही अभिव्यक्त
मेरे नेत्रों की प्यास ?
क्या हो गई है अर्थहीन
घिसे हुए शब्दों सी।

हनुमान : ( करबद्ध भारी मन से )
अब आज्ञा दें माँ !

सीता : ( चौंक कर )
आज्ञा ?
मैं ?
सीता !
आज्ञाकांक्षिणी है जो
उससे माँगते हो आज्ञा ?
( सीता मानो अपने आप से बोलती है - आवाज पृष्ठभूमि से )
यह कैसे मेघ हैं?
दीखते हैं
बोझिल जल बिंदुओं से।
पर कितने निष्क्रिय
क्यों नहीं बरसते ये ?
यह कैसा मधुछत्ता है
लबालब भरा।
पर टपकता क्यों नहीं ?
तो क्या नग्न हो जाए सीता
निर्लज्ज कर दे भाव को
क्या...

(सीता के ध्यान को बीच में तोड़ते हुए हनुमान बोलता है )

हनुमान : (हाथ जोड़कर )
माँ !
संदेश दो प्रभु के लिए।
कितने उत्सुक होंगे वे ?

सीता : (स्वर में कष्ट )
और मैं ?
देखो हनुमान
देखो इस मन को
अब भी छाप है जिस पर...
(रुककर )
संदेश ?
सीता का संदेश ?
पहले पूरा तो करो वत्स
संदेश प्रभु का...
(बावली सी सीता थोड़ी देर चुप हो जाती हैं। कुछ सोचती हैं। फिर दृढ़ मन होकर कहती हैं। )
हाँ !
अगर इतना ही था संदेश प्रभु का
अगर इतना ही था
तो कहना हनुमान प्रभु से
नई नहीं है कथा विजय की
तो भी बधाई हो प्रभु को
फिर प्रमाणित हुआ है उनका बल ही।

(व्यंग्य से )

कहना हनुमान प्रभु से
सीता वस्तु नहीं, नारी है
कुछ प्राण भी हैं उसमें
पत्नी है उनकी, हृदय वल्लभा।

(रुक कर - गहरी साँस लेते हुए )

तो भी
छोड़ कर मर्यादा युग की
माँगती है, हाँ माँगती है हनुमान
दर्शन
अपने ही प्रभु के।
चाहती है
चिर-प्रतीक्षित वह आलिंगन
तिल तिल जी है
सीता जिसके लिए।
वह तूफान चाहिए प्रभु का
जो शांत कर दे
उठे तूफान को
सीता के हृदय में

(लाचार सी )

बस !
और मत झुकने दो हनुमान
इन पेड़ों
इन हवाओं के नेत्रों को
लाज से।
बस।

(रुक कर )

क्या सचमुच नहीं दिया आदेश
या संदेश ही
मेरे बुलावे का
प्रभु ने ?
विजय पहली तो नहीं
कि भूल जाएँ मद में
स्वाभिमान सीता का ?
(हनुमान विचलित नजर आते हैं। )

हनुमान : माँ !
माँ !

(और कुछ बोल नहीं पाते। खिन्न - मौन लौट आते हैं। मंच पर एक पात्र ' विश्वास ' का प्रवेश )

विश्वास : ( गंभीर )
कितना भयंकर होता है
मेरा डिगना !
संदेह की एक उठी हुई उँगली भी
ढहा सकती है
पूरा भवन ही।
मैं विश्वास हूँ
मेरा होना ही
सागर है लहराती प्रेरणाओं का।
मेरा होना ही
जीवन है क्रिया का
मेरा होना ही
अमृत है संबंधों का।
माने, न माने कोई
मैं ही हूँ सत्य।
मैं ही हूँ सुंदर।
मैं ही हूँ शिव।
नहीं है यह आत्म प्रवंचना
मूढ़ता भी नहीं है।
साधना और सिद्धि
जहाँ खोए होते हैं मिलन में
वहाँ भी
होता हूँ मैं ही।
(मंच से प्रस्थान )

सीता : कितना अविश्वसनीय है सब !
हनुमान का मौन ?
लौट जाना निरुत्तर।
कितना अविश्वसनीय है सब ?
(विचलित सी मंच के एक कोने से दूसरे कोने की ओर चलती है। सरमा सँभालती है। सीता को बैठा देती है। )
(एक ओर से उद्घोषणा और दूसरी ओर से सन्नाटा का प्रवेश )

उद्घोषणा : ( प्रसन्नचित्त )
सुनें सब ! विजयी हुए हैं राम।
सम्मानित हैं राक्षस-राक्षसियों से।
सुनें सब !
सीता भी सुनें
विजयी हुए हैं राम।
अब राजा हैं विभीषण
भक्त
हाँ, मित्र राम के।

सन्नाटा : ( झुँझलाहट के साथ मुँह बनाकर )
उफ्कै
सी है उद्घोषणा !
कितनी मुखर है यह
इसे बस बोलना है।
और मैं ?
मैं जिसे ज्ञात है 'मौन' राम का
जिसने झाँकी है
'चुप्पी' सीता की ?
(विवशता का भाव )
बोलूँ तो कैसे बोलूँ ।
क्या बोलूँ ?
मैंने सुना है राम को।
मैंने सुना है
एकांत
चुप राम के
ध्वनि-विस्फोटों को।
क्यों नहीं हो गया मैं बहरा ?
(धीमे - धीमे मंच से बाहर चला जाता है। सूचना का प्रवेश - हर्ष का हाथ थामे हुए )

सूचना : आओ हर्ष आओ।
मुझे गुँजाना है संदेश राम का।
हो जाए कोई बहरा, या अंधा ही
मुझे क्या ?
सूचना हूँ मैं
मुझे तो सूचित ही करना है
भाव तो नहीं हूँ न मैं, न विचार ही।
जो हैं -
क्या गुजरती है उन पर
मुझे क्या ?
(कुटिल मुस्कान )
स्वायत्त हूँ मैं।
(गंभीर होकर )
सूचित हो, राम ने
भेजा है विभीषण को
लिवा ले जाएँगे जो
सीता को राम तक।
(चले जाते हैं। सन्नाटा पहले ही जा चुका है। मंच पर एक कोने में सीता। दूसरी ओर से विश्वास का आगमन )

विश्वास : ( दुखी होकर )
आह !
एक और आघात !
एक और प्रहार इतना गहरा।
पर सहूँगा
होने दो आघात पर आघात
सहूँगा।
(गर्दन झुका लेता है )
विवश मैं
कर भी क्या सकता हूँ ?
बँधा हूँ
खुद अपने ही संस्कार में।
(विवश होकर )
अधिक से अधिक
एक घटना ही तो हूँ मैं।
प्रतिकार तो नहीं है न
मेरा धर्म ?
(प्रकाश सीता पर )

सीता : स्तंभित
(भौंचक्की - सी )
यह क्या सुन रही हूँ मैं - यह क्या हो रहा है सूचित
लिवा ले जाएँगे विभीषण सीता को राम तक !
विभीषण ?
(सरमा की ओर देखकर )
सुना तुमने सरमा
सीता जो ब्याहता है राम की
सीता जो प्यार है राम का
लिवा ले जाएँगे उसे विभीषण राम तक !
(थोड़ी व्यंग्य मुद्रा के साथ )
वही हैं न मेरे राम
जिन्हें देखकर पहले पहल
मुँद गए थे
झट पलकों के द्वार ?
उतर आए थे राम
भीतर से भीतर तक।
वही हैं न राम
पिता की विवशता पर
जिन्हें क्षण भर को भी नहीं हुई थी दुविधा ?
वहीं है न राम
कितनी तत्परता से खा लिए थे बेर शबरी के ?
क्षण नहीं लगा था जिन्हें
अहल्या के उद्धार में !
(उलाहने के स्वर में )
फिर कौन सी थी बाधा आज
जो दौड़े नहीं आए राम
दौड़े नहीं आए मुझ तक ?

सरमा : शांत हों आप !
राम वनवासी हैं
शायद वर्जित हो उनके लिए
प्रवेश
लंकापुरी में,
आप शांत हों महारानी।
नारी हैं हम। अनुकर्ता हैं।
हो तो नहीं सकती न अनुकरणीय

सीता : अनुगतिक कहो सरमा
अनुगतिक
(बैचेन हो उठती है )

विश्वास : ( एक कोने में निराश )
आह !
वही हुआ न
भयभीत था जिसे मैं सोचकर
चिंदी-चिंदी उड़ने को है मेरी।
मुझे बचाओ।
मुझे बचाओ वनस्पतियो !
मुझे बचाओ हवाओ !
आदमी के संदर्भ में
मुझे बचाओ पक्षियो, प्राणियो !
(कातर स्वर में )
अकाल मृत्यु की गोद से
मुझे बचाओ सब मिलकर।
लील लेगा मुझे
यह प्रश्नों का महासमुद्र
सीता के मुख पर।
(घुटनों के बल बैठ जाता है। सिर नीचे है। धीरे - धीरे निगाहें उठाता जाता है )

सीता : ( अपने पूर्व विचारों के क्रम में ही पर आत्मविश्वास के साथ )
क्या प्यार पत्नी का
नहीं रखता कुछ आग ?
क्या देना एक प्यार महत्व
लज्जा है समाज में ?
क्यों ?
क्या संबंध नहीं है सामाजिक
यह पत्नी का ?
(धीरे धीरे खड़ी हो जाती है।)
यूँ भी
अगर आत्मसात सत्ता ही है पत्नी
तो दौड़ नहीं पड़ते क्या हाथ
किसी भी अंग के
होते ही संकट में ?
(ऊपर से नीचे की ओर इशारा करते हुए )
देखी है मैंने तो
पूरी देह ही समर्पित
समाधान में।
(विवशता के भाव के साथ )
पर प्रश्न कोई भी हो
कोई भी हो समस्या
एकालाप में तो
नहीं हो सकता हल।
और राम ?
क्या समूह ही हैं केवल ?
(भाव मुद्रा बदलती है। सरमा का हाथ पकड़ लेती है। )
भले ही
आता हो आड़े स्वाभिमान
जाना ही होगा सीता को सामने राम के।
मानना ही होगा आदेश
विजयी राजा का।
सीता तत्पर है। मुझे तैयार करो सरमा !

विश्वास : (कातर )
क्षमा हो धरती !
क्षमा हो आकाश !
दिशाओ ! क्षमा हो।
क्षमा हो हवाओ !
मैं विश्वास हूँ -
क्यों
और कहाँ
नहीं है विषय मेरा।
विश्वास हूँ मैं बस !
सहूँगा
हो आघात पर आघात
सहूँगा।
(प्रस्थान करने लगता है )

सीता : ( दुखी एवं बेचैन, ऊपर की ओर देखते हुए।)
डिगो नहीं, डिगो नहीं, ओ मेरी आस्था।
अनचाहे शब्दों
मत आओ तुम भी विचार बन कर।
कहीं विवश तो नहीं मेरे राम ?
होंगे विवश ही।
(थोड़ी सामान्य होकर अर्द्ध - दीर्घ साँस लेते हुए )
और फिर
भले ही कहें लोग हत्स्वाभिमानिनी
सीता प्रतीक है
संघर्ष का।
सीता को
संघर्ष ही होना है।
ओ मेरी आस्था
रहने दो सीता को समर्पण ही !
(भाव मुद्रा बदलती है )
एक बार भी
बन गई अगर प्रश्न सीता
बुनियाद ही हिल जाएगी सत्ता की
रहने दो सीता को समर्पण ही
ओ मेरी आस्था !
(मंच पर अंधकार )

 

[5]

(राम का शिविर। लक्ष्मण आदि चुप खड़े प्रतीक्षारत हैं। )

सूचना : ( उदासीन )
सूचना हूँ मैं,
सूचना हूँ मैं
अपना कुछ नहीं जिसका।
आ रही हैं सीता
विभीषण के साथ-साथ
आ रही हैं धीमे-धीमे
दबीं
अपने ही मनोभावों के बोझ से।
(दर्शकों की ओर देखकर )
ठीक से ही किया है न मैंने सूचित।
पक्ष तो नहीं लिया न किसी का।
रह सकी हूँ न स्वायत्त ?
बहुत जरूरी है मेरा स्वायत्त होना।
नहीं ?
(कुटिल मुस्कान )
(सीता का आगमन ! राम हर्ष - विषाद के कगार पर , वह राजा के रूप में बैठे रहते हैं। मौन हैं लेकिन भीतर हलचल। )

राम : ( अपराध बोध के साथ, आवाज पृष्ठभूमि से।)
नहीं, मैं नहीं उठ सकूँगा सीता
नहीं हो सकूँगा निरा व्यक्तिगत संदर्भ ही।
चाह कर भी
नहीं दौड़ सकूँगा तुम्हें बाँधने आलिंगन में।
यह सिंहासन
बँधा हूँ जिससे
प्रतीक है समूह का।
द्वंद्व ही यही है राम का
नहीं समझ पदाया वह आज तक
कहाँ वह व्यक्ति है और कहाँ समूह !
जब चाहा समूह होना
व्यक्ति हो गया है राम
और जब जब
होना चाहिए था व्यक्ति
समूह भर रह गया राम।
राम युद्ध है
एक निरंतर युद्ध।
(सब ओर खामोशी है। सबके भीतर उथल - पुथल है। )

सन्नाटा : (विचलित एवं खेदजनक स्वरों में मंच के अग्रभाग पर एक कोने में है। दर्शकों की ओर देखते हुए )
फिर वही...
बोल रहे हैं सब
भीतर ही भीतर।
मैं सुन रहा हूँ !
स्पष्ट हैं मुझ तक
सारे शब्द।
सब बोल रहे हैं
कोई नहीं सुन रहा एक-दूसरे को।
आखिर कब तक रहूँ मैं भी
कब तक देता रहूँ सहारा हालात को
सीमा तो मेरी भी है।
मुझे चलना ही होगा यहाँ से।
क्श!
मैं होता बहरा।
या बोल ही पाता।

सीता : ( स्वगत, आँखों में प्रश्न एवं उत्सुकता, आवाज पृष्ठभूमि से )
क्या सचमुच नहीं हो पा रही हूँ अभिव्यक्त
नहीं हो पा रही हूँ संप्रेषित
अपने राम तक ?
या महज लीला है राम की
एक नाटक भर।
कौन सा मोह है
जो आज बड़ा है सीता से विजयी राम को ?
क्या सचमुच है कोई मोह
सीता से भी बड़ा
राम को ?
यह क्या हो गया है मुझे ?
कौन डाल रहा है ये दरारें
मुझमें ?
आह ! टूट ही जाती।
असह्य है विभक्त होना सीता को
असह्य है उदासीनता राम की।
नहीं, सीता नहीं है मात्र नारी
पत्नी भी है राम की।

राम : (सीता को संबोधित तथा स्वयं को अविचलित प्रकट करते हुए )
मैंने विजय पाई है लंका पर
लिया है प्रतिकार अपमान का
समझो इस पुरुषोचित कार्य को सीता !
(राम सोचने लगते हैं। कुछ देर सीता को देखते रहते हैं। )

सीता : ( मन ही मन आघात महसूस करते हुए )
काश !
काश कह पाते राम
विजय हुई है हमारी
लंका पर।
यूँ तो न छिटको मुझे
शब्दों में।
करोड़ों तीरों से भी अधिक होती है
चुभन
असह्य शब्दों की।

राम : (गर्व से )
मैंने धो दिया है कलंक
अपने कुल का।
तुम वशीभूत रावण की
आज स्वतंत्र हो राम के पुरुषार्थ से।
(तटस्थ होकर )
तुम स्वतंत्र हो सीता
जैसे स्वतंत्र है विस्तार महासागर का
उन्मुक्त हो तुम
सृष्टि की हवाओं सी।
अब नहीं हो बँधी
बद्ध विचारों सी।
(कुछ रुककर सीता की ओर देखते हैं। सीता की स्थिति विचित्र है। राम के कहने का ' तटस्थ ' सा लहजा उन्हें चौंकाए हुए है। )
तुम पुरुष नहीं, नारी हो सीता ?
समझना ही होगा तुम्हें युग-सत्य को ?
रही हो तुम छत्रछाया में रावण की
(राम की साँस तेज है और सीता भौंचक्की सी है। शेष सब सहमे से )
तुम्हें जीतना कर्तव्य था मेरा
करना ही था मार्जन मुझे
वंश पर लगे कलंक का।
कोशिश करो सीता और समझो
तुम स्वतंत्र हो
स्वतंत्र हो किसी भी सूत्र से।
(सब चौंकते हैं। कुछ उलझे हुए से हैं। सीता , लगता है , जैसे समझ रही हैं। )

सीता : (दृढ़ स्वरों में )
नहीं
सूत्रहीन स्वतंत्रता अराजकता है मेरे राम।
उच्छृंखल नहीं है सीता।
सीता नहीं है संदर्भहीन नारी।
पत्नी है सीता -
स्वतंत्र
पति की धुरी पर।
परतंत्र तो कभी नहीं थी सीता।
(आत्मविश्वास के साथ )
नहीं, मैं नहीं समझना चाहती कुछ भी
सीमा समर्पण है राम -
एक विनीत समर्पण।
रक्षित है आपसे
स्व
सीता का।
आप इसे समझें
भिन्न ही कहाँ है
सीता अपने राम से।
मेरे राम !
सीता नहीं,
आपने स्वतंत्र की है
देह, सीता की, विवश।
आत्मा तो यहीं थी
यहीं।
सदा आपके पास
अविजित।
(संदेह से )
यह कैसे घिर रहे हैं महामेघ
साँवले
आपके चेहरे पर।
(समझाने की मुद्रा में थोड़े कातर भाव के साथ )
रोको
रोको मेरे राम
उन आती हुई गर्जनाओं को
संभावित तूफानों को।
जीतो
विजयी राम
जीतो इन्हें।
मैं नहीं देख सकती आपकी पराजय
क्षेत्र कोई भी हो।
(सीता काफी परेशान नजर आती है लेकिन राम पूर्ववत बने रहते हैं। )

राम : (अविचलित )
सीता
भूलती हो तुम
तुम्हारी देह ने
स्पर्श किया है रावण का
तुम स्वयं तो नहीं बैठ गई थी न
उचक कर रथ में ?

लक्ष्मण : (आश्चर्य से) क्या ? (इधर-उधर देखता है। सब गर्दन झुकाए हैं)

सीता : (आत्मविश्वास के साथ झुँझलाहट को रोकते हुए )
हाँ
यही तो मेरा भी पक्ष है राम
मैं स्वयं नहीं बैठ गई थी उचक कर रथ पर।
पर मैं कुछ नहीं समझ पा रही
कुछ भी तो नहीं।
कितने कठोर हैं ये क्रियापद आपके
भटका रहे हैं मुझे
अपरिचित जंगल के अथाह अर्थां में।
स्पर्श
किया नहीं देह ने
हुआ है राम।
मुझे मत मारो
यह भाषा की मार।
मत बुनो यह शब्दों का जाल
हमारे बीच।
मेरे लिए
जो हमेशा था अर्थ
क्यों हो रहा है सीमित
मात्र शब्द तक ?

राम : (अविचलित )
कोशिश करो सीता
और समझो राम को।

हनुमान : (विनीत किंतु सरोष )
प्रभु क्षमा करें, क्षमा करें
अब और नहीं घुट सकता मैं भीतर ही भीतर।
अब और रहा चुप
चाटुकारिता हो जाएगी भक्ति।
जरूरत तो आपको है समझने की
आपने समझा ही कहाँ सीता को !
क्या सचमुच याद नहीं आपको
वह वृत्तांत
जो बताया था मैंने
अशोक वाटिका से आकर
पहली बार।
पुत्रवत मुझ हनुमान का प्रस्ताव तक
नहीं स्वीकार किया था माँ सीता ने।
(ठहर कर )
इसीलिए न
कि नहीं चाहा था इन्होंने
स्पर्श तक रामेतर पुरुष का
स्वेच्छा से ?
समझ सकें तो आप समझें सीता को प्रभु !
और आप तो उद्धारक हैं अहल्या के
अहल्या तक के
इंद्र को पहचान कर भी
संकोच नहीं हुआ जिसे
समागम सुख भोगने में
पर पुरुष का।
तो भी
नतमस्तक था मैं आपके हृदय की विशालता पर
और आप से भी अधिक
ऋषि गौतम की महानता पर।
ऋषि को
यूँ छोटा तो न बनाओ प्रभु !

राम : मैं पुरुष हूँ
मैंने निभाया है कर्तव्य
कलंक मिटाया है वंश का
सीता को जीतकर।
(सीता की ओर देखकर )
तुम्हें
तुम जो रह रही थीं किसी और के घर में।

सीता : (अफसोस के साथ)
फिर वही
फिर वही भाषा की मार
कठोर प्रहार क्रियापदों का।
डरो
डरो राम दुरुपयोग से भाषा के।
सीता
रह नहीं रही थी किसी और के घर में
रखी गई थी
बंदी बनाकर।

राम : (सीता से निगाह मिलाए बिना। थोड़े क्रोध से)
ठीक है
पर अब स्वतंत्र हो तुम सीता।
जीता है
मैंने तुम्हें पुरुषार्थ से।
निभाया है कर्तव्य।

लक्ष्मण : (व्यंग्य से )
'जीता है'...
सड़ाँध मारने लगा है यह शब्द बासी।
कितना घिनौना कर दिया है इस शब्द को
दुरुपयोग ने।
जीता नहीं
छुड़ाया है सीता को आपने।
(भावुक होकर )
अपनी सीता को। भाभी को।
(परेशान होकर )
मैं नहीं समझ पा रहा
कुछ भी तो नहीं समझ पा रहा।
(राम जैसे अनसुना कर देते हैं )

राम : (बिना आँख मिलाए - लगभग आकाश की ओर ताकते हुए )
समझो सीता
राम विवश हैं तुम्हें त्यागने को
विवश थी जैसे सीता
किसी और के घर रहने पर।
(इधर - उधर देखते हुए )
तुम स्वतंत्र हो
वर लो चाहे किसी को।
मैं नहीं कर सकता स्वीकार तुम्हें।

लक्ष्मण : (झुँझलाकर )
उफ् !

सुग्रीव : (आश्चर्य और क्षोभ के साथ )
यह क्या कह रहे हैं आप प्रभु
यह क्या कह रहे हैं ?
नहीं, इतने आत्मलिप्त तो नहीं हो सकते आप ?
कम से कम
ध्यान मेरा तो रखा होता !
झुलसा रही हैं
इस सुग्रीव के भी घर को
आग उगलते
आपके शब्दों की लपटें।
क्या अपमान नहीं कर रहे आप
बाली की शिकार हुई रूमा का ?
(भावुक होकर )
मेरी पत्नी रूमा का
जिसे मुक्ति मिली थी आपके ही प्रताप से ?
क्या ग्रहण नहीं किया मैंने उसे ?
क्या हुई थी आपत्ति आपको तनिक भी ?
सोच कर तो देखें अपने कथन पर प्रभु !
यह अपमान केवल सीता का नहीं
पुरुष की
पशुता की शिकार हुई हर नारी का है।
हर उस पुरुष का अपमान है प्रभु
जिसने स्वीकारा है अस्तित्व नारी का
सम्मान दिया है जिसने
नारी की आत्मा को।
आप तो मान हैं
कसौटी हैं सृष्टि की।
वानर हुए तो क्या
इतने गए गुजरे तो हम भी नहीं।

राम : (थोड़ी देर चुप रहकर )
नहीं सुग्रीव
समझना ही होगा ब्रह्मांड को
सामान्य न सीता है
न पुरुषत्व ही राम का।
मुझे त्यागना ही होगा सीता को।

हनुमान : यह कौन सा विधान है प्रभु।
यह दुहाई है किस पुरुषत्व की
क्या प्रभाव तो नहीं है यह लंका-भूमि का ?
क्या गहरा तो नहीं रहा है
राक्षसत्व का प्रेत लंका-आकाश पर !
(उत्तेजित होकर )
यहाँ से भाग चलें राम
स्वतंत्र कर दें लंका-भूमि को।
(राम अति चलित रहते हैं। )

सीता : (शांत होकर )
त्याग सकते हैं आप
शायद अधिकार हो आपको।
पर कहाँ
किसके साथ जाए सीता
अधिकार यह मेरा है।
मानती हूँ
स्वतंत्र है सीता।
स्वतंत्र तब भी थी
वरा था जब राम को।
स्वतंत्र तब भी थी
ठुकराया था जब प्रस्ताव रावण का।
(स्थिर होकर )
क्यों
क्यों है अधिकार पुरुष का ही
स्वतंत्र करना नारी को।
पत्नी हूँ मैं राम
बँधी उतनी ही आपसे।
(रुककर )
कोई तो होगा ही न वह वृक्ष
बँधते हैं जिससे
दो प्राणी स्वतंत्र
होते ही विवाह !
संदर्भहीन नारी नहीं
उत्तरदायित्व हूँ मैं राम !

राम : (सहसा )
उत्तरदायित्व ?

सीता : (निश्चय के साथ )
हाँ ! उत्तरदायित्व हूँ मैं राम, उत्तरदायित्व।
कर सको
तो स्वतंत्र करो इस जड़वत खड़े विशिष्ट समुदाय को।
जबान पर चढ़ाए साँकल
बहुत देर तक नहीं रह सकता मूक
उत्प्रेरित मौन।
पूछो इनसे !
(सब की ओर निगाह घुमाती हैं। लक्ष्मण सहित सबके चेहरों पर अपराध - बोध , विवशता और राहत का भाव एक साथ। राम स्थिर हैं - कम से कम ऊपर से। जन आँखों ही आँखों में एक - दूसरे को स्वीकृति के भाव के साथ देखते हैं। )
संबंध
सामाजिक हो या वैयक्तिक
नहीं हो सकता खूबसूरत
और अर्थवान भी
बिना उत्तरदायित्व के
पिता का घर हो या पंचवटी
अशोक वाटिका हो
या यात्रा यहाँ तक की
सीता ने बाँधा है उसे पल्लू में।
सीता कभी नहीं हुई
उत्तरदायित्वहीन राम।
चाह ही लिया होता
यदि किसी और को भी सीता ने
तो चाहा होता पूरे उत्तरदायित्व से।
(और दृढ़ होकर )
सीता नहीं हो सकती द्वंद्व।
मत दबाओ उसे
निर-अपराधी अपराध से।
सीता धँस जाएगी
धँस जाएगी सीता।
सीता नहीं खो सकती उत्तरदायित्व
सीता का संबंध पृथ्वी से है
अर्थ मिलता है जिससे और रूप भी।
सीता
होती कैसे होती उत्तरदायित्वहीन।
यही तो वह बिंदु है
जहाँ अलग हो सकती है सीता
राम से भी।
(सब ओर चुप्पी छा जाती है। एक ओर से एक नए पात्र ' उत्तरदायित्व ' का प्रवेश। एक कोने में खड़ा हो जाता है। दर्शकों की ओर देखकर )

उत्तरदायित्व : (कुछ दबी - दबी आवाज में , आश्चर्यचकित भी )
मुझ
मुझ उत्तरदायित्व के लिए
सीता हो सकती है अलग
राम से भी ?
किसी असाध्य रोग से पीड़ित रोगी सा
मैं तो पड़ा था कहीं एकांत उपेक्षित सा !
कहाँ थी आशा मुझे
ढूँढ़ लिया जाऊँगा कभी मैं भी ?
लौट भी सकूँगा कभी फिर केंद्र में।
युद्ध से युद्ध की शेष मानसिकता तक
मैंने देखा है
खुद को रुलते
ठोकरें खाते पाँवों में।
(सीता की ओर देखकर )
मैं नत मस्तक हूँ सीता
मैं कृतज्ञ हूँ
आशीष देता हूँ हृदय से।
(चला जाता है। )

सीता : (दुखी स्वरों में )
मत करो राम
सीता के संबंध को मत करो उत्तरदायित्वहीन।
किसी अन्य पर भी हो आसक्त
तो रहो
बाधा नहीं होगी सीता।
राम विश्वास है सीता का
सीता ही का होगा राम
सीता के समीप, जानती हूँ।
निभाएँ राम
कोई भी उत्तरदायित्व
और किसी का भी - व्यक्ति हो चाहे राज्य।
पर मत करो राम
संबंध मेरा
उत्तरदायित्वहीन।
(दयनीयता के भाव से मुक्त होते हुए )
यह करुणा नहीं
अधिकार है सीता का
और समझ भी।
सीता ही का क्यों
हर उस आदमी का है
स्वयंचेता है जो
जानता है स्वत्व को।
असीम है व्यक्ति राम
उसे समझो !
समर्थ है वह
हर अंश को
संपूर्णता देने में।
तभी तो संपूर्ण है।
संबंध पिता हो, चाहे माता
पत्नी हो या प्रेमिका
पुत्र हो या बंधु
नैतिकता नहीं
टिका है उत्तरदायित्व पर ही ज्यादा।

राम : (अस्वीकृति में गर्दन हिलाते हुए )
नहीं
वृत्त में मत बाँधो राम को
रहने दो रेखाओं में
बल्कि रेखाओं से भी
किन्हीं अन्य प्रयोगों में।
(थोड़े गुस्से से )
सीता !
कहाँ थी आवश्यकता इस समझ के वर्णन की ?\
और है भी
तो राम का उत्तरदायित्व
यह समाज भी है और मेरा वंश भी, हाँ मेरा वंश भी।
राम नहीं हो सकता
मात्र यथास्थिति ही।
वर्तमान
हो ही नहीं सकता राम।
अतीत है।
या है वह भविष्य।
बल्कि भविष्य ही है राम ज्यादा।

लक्ष्मण : (आहत होकर )
'मेरा वंश।'
यह शब्द 'मेरा'
क्या नहीं सोचना चाहिए इस पर राजन !
'म' निहित होकर भी
संबंधहीन है कितना !
सोचो (उत्तेजना) भैया
क्या उचित था इसे कहना
सीता के संदर्भ में भी ?
(रुककर )
क्या वंश से बाहर हैं भाभी ?
क्या वंश से बाहर होती है माँ ?
क्या गढ़ा जाता है वंश अकेले पिता से ही ?
क्या केवल श्रमिक है नारी
निर्माण होते ही भवन का
तिरस्कार कर दिया जाए जिसका ?
(सीता चुप है। राम विचार मग्न )

जन - समूह : (स्वगत ) ( ष्ठभूमि से आती हुई आवाज हृदय से निकली आवाज का प्रतीक। आकाश की ओर दोनों बाँहें उठाए हुए )
सोचो राम ! सोचो !
यह कैसी विचित्र बात है ?
हम साधारण जन तक
समझ रहे हैं जिस सच को
नहीं समझ पदा रहे हैं राम ?
कैसे दीखते हैं आज
हमसे भी साधारण, हमसे भी आम।
स्वभाव तो हमारा है
दीखना उदार अन्य के संदर्भ में
और हो जाना कृपण
आते ही संदर्भ अपना।
सोचो राम, सोचो
राम तो नहीं है न सामान्य ?
तब इच्छा क्या है आखिर
राम की ?
सोचो राम, सोचो
क्या वही होकर रहेगा हर हाल
जो इच्छा है राम की ?
यह कैसी विचित्र बात है
सीता पर नहीं
जो हम पर भी आघात है।
सोचो राम, सोचो

राम : (सीता की ओर सीधे देखते हुए )
प्रश्न यह नहीं
कि मुझे कुछ समझना है, सोचना है, सोचना है।
प्रश्न तो यह है
कि मुझे समाज होकर जीना है।
जिस दिन
समझी जाएगी यह विवशता राम की
स्वयं जान ली जाएगी निरर्थकता
अपनी सोच की !

लक्ष्मण : (थोड़ी उत्तेजना के साथ )
पर कौन सा समाज राजा राम ?
क्या अनुकूलता ही परिभाषा है समाज की
क्या समाज वही है जिसे हम जीते हैं वर्तमान में ?
क्या स्थिर जल है समाज ?
समाज वह सागर भी है भैया
जो हमें डराता है।
रोकता है
खुद की थाह लेने से ।
आंदोलित होता है
उग्र लहरों में जकड़ने को
माप के लिए उतरे व्यक्ति की भनक से ही।
(ठहर कर )
और समाज वह व्यक्ति भी है
जो उतरता है उसमें।
बाँधता हुआ बाँहों से उसकी लहरों को
पार उतर जाता है।
विषम तारों को
सम पर
एक नया संगीत देता है।

राम : (चेहरे पर क्रोध का सा भाव )
मुझे मत उलझाओ इन प्रश्नों में ?
दर्शन नहीं है महत्वाकांक्षा राम का
मुझे जीने दो व्यवहार में।
वृत्त नहीं है राम
मात्र रेखाएँ हैं।
और राम
नहीं है वह उत्तरदायित्वहीन भी।
वह तो उत्तरदायित्व है
पूरी सृष्टि का
विभीषण और रावण का भी।
(रुक कर दृढ़ स्वरों में )
मुझे
मेरे व्यक्ति को -
राम नहीं,
तलाश है रामत्व की
जिसे मुझे पाना है।
पाना है।
हर कीमत पर।
इस ऋजु राम में
मत ढूँढ़ो विरोधाभास सीता !
सोच सको
तो सोचो
अपनी सोच की निरर्थकता को।

सीता : (स्वगत - आवाज पृष्ठभूमि से )
निरर्थकता ?
सोच की ?
(तिरस्कार प्रकट में )
हाँ ! राम !
सीता जानती है
सोच की निरर्थकता।
सीता
चाहती है सामान्य होकर ही
विशिष्ट होना।
यही तो
नहीं न स्वीकार
राम के रामत्व को ?
सीता को जानना चाहिए
राम मात्र पुरुष हैं।
सीता को जानना चाहिए
जीना है उसे विशिष्ट होकर
जो अनुकूल है रामत्व के।
नहीं है अधिकार सीता का
विशिष्ट होना
अपने ढंग से
राम के समाज में ?
नहीं है न अधिकार सीता का
हस्तक्षेप करना
राम के रामत्व में ?
नहीं है न अधिकार सीता का
किसी सीतात्व की
रचना करना ?
(रुककर )
मैं चाहती भी नहीं राम
रचना
सीतात्व।
नहीं चाहती मैं
इतिहास देना अपने नाम को।
पर सीता को
उत्तरदायित्व समझो राम।
उसे फेंक तो मत दो
निरर्थक कर
समुद्री हवाओं में।
रामत्व ही नहीं
सीता भी
तलाश है राम की।
सीता के अस्तित्व को
और न करो नग्न ।
सीता स्त्री भी है।
(चुप हो जाती है। ' उत्तरदायित्व ' एक कोने में आकर )

उत्तरदायित्व : उफ् !
और कितना होना है पददलित आज !
जो अर्थ भर दिया है सीता ने मुझमें -
मुझ उत्तरदायित्व में -
कितना बड़ा है।
कितना गौरवान्वित हूँ मैं आज !
सौंदर्य संबंध का
और अर्थ भी
आज संभव है मुझसे ही।
पर राम !
आप भी तो समझें
आप भी तो समझें मुझे इस क्षण।
समझें
सीता के अर्थ को भी।
निरपेक्ष नहीं है सीता
परती पड़ी धरती सी।
उत्तरदायित्व है किसी की।
(बैठ जाता है )

राम : (मुख पर विवशता )
रहस्य नहीं है राम !
शायद यही है सबसे बड़ी त्रासदी राम की।
भीतर
बाहर
वही है राम।
सहज शब्द है वह।
मत खोजो कोई गूढ़ अर्थ
राम में।
राम की बुनियाद बंधन है।
स्वतंत्र कुछ नहीं है राम का।
एक सामूहिक
स्वीकृत मानसिकता से अलग
अस्तित्व ही क्या है राम का।
प्रयोग नहीं है राम
केवल आचरण है।
तुम्हरा होकर भी
तुम्हारा नहीं है केवल।
सीता !
समझो अपने राम को।

उत्तरदायित्व : (निराशा के साथ - मंच के अगले भाग में खड़े होकर )
चलना ही चाहिए मुझे।
इतना अवांछित
शायद कभी नहीं हुआ था मैं।
इतनी बड़ी सभा में
केवल मैं हूँ
उपेक्षित
अपमानित भी।
जहाँ तर्क का उत्तर ही
तर्क न हो
कौन पूछता है वहाँ मुझे।
धधक रही है सीता तर्क बनी।
पर कब तक ?
कब तक ?
सीता विवश है
छोड़ दी गई है जलने को अकेली
तर्क की अग्नि में।
मैं चलूँ
मुझे चलना ही चाहिए इस भूमि से।
(हाथ को घुमाते हुए )
पर याद रहे
याद रहे काल और दिशाओं को
सहज नहीं होता
जाना उत्तरदायित्व का।
बड़े से भी बड़े भूचाल से भी ज्यादा
हो सकता है अशिष्ट
प्रस्थान मेरा।
दे सकता है परिणाम
एक महा प्रायश्चित को जन्म
याद रहे।
याद रहे।
(उत्तरदायित्व चला जाता है - उदास , गर्दन लटकाए , विवश सा। इसी भाव के साथ सन्नाटा का प्रवेश।

सन्नाटा : (आकाश की ओर देखते हुए )
जाओ
चले जाओ
सीता नहीं हो तुम
जो ठहरे रहते अपमानित होकर भी।
जाओ।
तुम क्यों रहो सीता-से उपेक्षित।
अकेली सीता को
आज और भी हो जाने दो अकेला।
(सँभल कर )
किंतु
किंतु
भले ही कर दे कोई सीता को अकेला
नहीं किया जा सकता
स्त्री को।
भले ही न जी पाए सीता
होकर सीता
पर कौन रोक सकता है
स्त्री को।
जाग गया यदि स्त्रीत्व सीता में
तो हिल जाएगी नींव
रामत्व की भी।
(सोचते हुए )
पर दूर की बात है अभी
बहुत दूर की।
(गहरी साँस लेकर )
अभी तो
जाने कब तक लड़खड़ाना है समय को
जीत के इस मदिरालय में।
करनी ही होगी प्रतीक्षा
अभी समय को
करनी ही होगी।
(चला जाता है, ' विश्वास ' का आगमन जो पगलाया - सा है। )

विश्वास : क्षमा हो धरती !
क्षमा हो आकाश !
मैं करूँ भी तो क्या
मैं विश्वास हूँ
महज एक भाव
क्रिया नहीं हूँ मैं।
एक खिलौना भर हूँ।
जब जिसने चाहा है
खेला है मुझसे।
(बैठ जाता है प्रकाश राम पर )

राम : (क्रोध से लेकिन अपराध बोध की भावना के साथ )
विवश न करो सीता !
क्या कहना ही होगा राम को -
हो भी अगर विश्वास तुम पर
तो कैसे करे विश्वास
वह रावण पर।
नपुंसक तो नहीं था रावण।

लक्ष्मण : (क्रोध से दाँत भींचकर घृणा से कानों पर हाथ रखते हुए )
बस बस
बस करो राजा राम !
बस करो मर्यादा पुरुषोत्तम !
(झुँझलाकर )
मुझे हट जाना चाहिए यहाँ से।
(एक ओर मुँह फेर लेता है। )

सीता : (अफसोस और झुँझलाहट के साथ )
ओह ! विश्वास ! विश्वास !
किसी और पर नहीं
अपने आप पर सीखें विश्वास करना राम !
अपने आप पर।
हल तभी है
संबंधों के ताप का।
अपने आप पर सीखें विश्वास करना राम
जैसे करती है सीता।
पार्थिव अगर रावण था
तो राम भी नहीं है अपार्थिव।
(ग्लानि )
सोचे भी तो कैसे सोचे सीता ?
यह क्या सोच रहे हैं राम ?
करें विश्वास
अपने आप पर !
नहीं था क्रूर
रावण-प्रस्ताव भी इतना।
नहीं थी क्रूर
धमकियाँ भी इतनी राक्षसियों की।
समेट लो इसे राम
यह आघात मेरी आत्मा पर है
जो पास है सदा तुम्हारे ही।
चाहो
तो झकझोर लो किसी वृक्ष को टहनियों से
नोंच लो खाल क्रूर होकर
पर क्षार मत डालो जड़ों में।
विश्वास करें आप
अपने आप पर।
(ठहर कर )
मत बनाओ सीता को याचिका
यूँ मत बिठाओ चौराहे पर
सीता को।
सीता पत्नी है।

राम : (असहमति से )
नहीं सीता !
समस्या यह नहीं
कि मैं करता हूँ विश्वास या नहीं
अपने आप पर।
समस्या यह नहीं
कि मैं स्वीकार कर सकता हूँ कि नहीं
तुमको।
पर मैं
जो कि पुरुष है
समझता हूँ पुरुष को।
हर 'मैं'
जो कि पुरुष है
अधीन है 'पुरुष' के।
इसे समझो सीता
नहीं है पुरुष का 'मैं'
पुरुष से निरपेक्ष।
मैं नहीं चाहता
विस्तार से कहना
करना तुम्हें लज्जित।
तुम स्वतंत्र हो
थाम लो हाथ किसी का भी।
(रुककर - आदेश के स्वर में )
निर्णय है यह सीता
कोई परीक्षा नहीं है।

सीता : (व्यंग्य से )
वाह ! मेरे पुरुष राम ! वाह !
यह आप कह रहे हैं
थाम लूँ हाथ किसी का भी।
कितना सहज है यह वाक्य पुरुष के पक्ष में।
(क्रोध से )
जूठन नहीं है सीता
फेंकी गई पत्तलों की।
(व्यंग्य हँसी हँसकर )
मेरे राम !
यदि न होता विश्वास सीता पर
तो सच कहो
कह सकते थे यह वाक्य कभी।
सोचो
अगर ओछे आदेश पर आपके
थाम ही लूँ हाथ मैं
नीच नारी सा किसी का भी
तो हिल न जाएगा आपका यह वंश
और हिल न जाएँगे
खुद आप भी।
समझो राम
यह विश्वास ही है सीता के प्रति
जो कह गए हो ऐसा वाक्य भी।
क्षमा नहीं किए जाओगे राम
सीता सी नारियों से
किसी भी युग में ?
नहीं किए जाओगे क्षमा
ऐसे
ओछे वाक्य पर।
आर्य हो राम
ऐसा तो शायद
नहीं कहते राक्षस भी।

विश्वास : (राहत की साँस लेकर घुटनों के बल बैठ कर )
मैं धन्य हूँ।
धन्य हूँ सीता।
यह दास विश्वास
धन्य है।
भाव ही नहीं
मैं हो सकता हूँ विशेषण भी।
मुझे तारा है आज
एक बीहड़ नदी से।
(बैठ जाता है। )

राम : (मुख पर झुँझलाहट और गुस्सा )
हठ न करो सीता
तर्क नहीं है राम
आस्था है।
आस्था है जन-समुदाय की।
आस्था की थपकियों में
सोने दो समुदाय को
मत दिखाओ चिन्गारी तर्क की।
राम मुक्ति नहीं
बंधन है।
निर्लज्ज न बनो सीता
देखो
किस ओर से नहीं उठ रही तुम पर
संदेह की मूक उंगलियाँ
राम नहीं काट सकता उन्हें सीता !
एक भी अगर की कोशिश
राम खुद कट जाएगा
राम की हिल जाएगी प्रभुसत्ता।
राम पर्याय है
समर्थन का
समझो, इसे सीता।
नहीं होती घर किसी की
कोई भी
राजनीति।
सत्य कुछ नहीं है राजनीति में
पर ढोंग भी नहीं है।
केवल अटकलें हैं।
मत करो व्यर्थ अपने शब्दों को
बहुत तेज होती है धार
अटकलों की।

लक्ष्मण : (उपहास की मुद्रा में )
तब कहाँ रह गया फर्क
आप में और रावण में।
हनन तो हर हाल
इच्छा का ही हुआ न सीता की ?
विवश तो हर हाल
हुई न सीता ही ?
(दृढ़ होकर )
पर लड़नी होगी
लड़नी होगी लड़ाई सीता को
खुद ही।
आप पर छा गए रावण से भी
लड़ेगी सीता।
(सब सन्न रह जाते हैं। एक ओर ' सन्नाटा ' और एक महिला - ' उत्सुकता ' का प्रवेश )

सन्नाटा : (चौंककर )
क्या
क्या कह गए हैं लक्ष्मण
राम की तुलना रावण से ?
राम ! राम !
रक्षा हो। रक्षा हो।
बिदक गए अगर पक्षधर राम के
धरे रह जाएँगे तर्क
काट दिए जाएँगे
वनस्पतियों से।
(उत्सुकता की ओर देखकर )
सुना तुमने उत्सुकता
क्या कह गए लक्ष्मण ?
भले ही दम हो बात में
पर
पर क्या पचा पाएँगे
पक्षधर राम के ?

उत्सुकता : (हिस्स कह कर चुप कराते हुए )
अभी चुप रहो सन्नाटा
हो जाओ और गहरे।
देखने दो
देखने दो क्या होता है आगे।
वह देखो
एक और विधा
उतर आई है सीता के मुख पर।

सीता : (लंबी साँस लेकर)
ठीक है मेरे राम, ठीक है
शायद नहीं जानते आप
खुद को ही नहीं
गिरा दिया है सीता को भी
बहुत नीचे।
भुला दिया है आपने
सीता के असाधारण को।

विश्वास : (बैठे - बैठे हाथ उठाकर )
क्षमा हो धरती।
क्षमा हो आकाश।
कैसा दाह है सीता के हृदय का।
कैसी अग्नि है आँखों में राम की।
मैं देख सकता हूँ
जलता हुआ लक्ष्मण
पूरा का पूरा।
यह कैसा अग्निकांड है ?
बुझा पाएँगे क्या
प्रलयंकारी मेघ भी
युगों के ?

सीता : (आकाश की ओर देखकर )
ओ देव ! ओ अग्नि !
दाह मत करो मेरा
मात्र भीतर से
मुझे भस्म कर दो पूरा का पूरा
जला डालो
रावण स्पर्शित इस विवश देह को।
भस्म कर दो देव !
सीता नहीं जी सकती
नहीं जी सकती अब और।
मुझे ले लो अपनी गोद में ओ देव ! ओ अग्नि !
नहीं लाँघ सकती सीता
एक और
लक्ष्मण रेखा सी मर्यादा
युद्ध नहीं है सीता
सीता संघर्ष है
बस।
समर्पण ही लक्ष्य है सीता के युग का
सीता को ग्रहण करो देव !
(धरती की ओर देखते हुए )
ओ माँ ! ओ धरती !
देख रही हो न
अपनी इस बेटी को ?
रोक लो
एक और हरण संभावित।
अब और नहीं है धैर्य
किसी भी कैद में रहने का
सीता में।
प्रकट करो अग्नि को माँ ?
प्रकट करो।
(विचलित घुटनों में मुँह छिपाए बैठ जाती है। सब ओर मौन है )
(गिरते - पड़ते से एक पात्र ' संदेह ' का प्रवेश )

संदेह : (विवश , दार्शनिक स्वर में )
मुझसे बढ़कर
अपने आपको
और जानता भी कौन है ?
संदेह हूँ मैं।
जो नहीं होता
होता हूँ मैं
और नहीं भी होता।
अभिशप्त हूँ मैं रहने को मूक
मैं नहीं अपना समाधान स्वयं।
सूली तक पर नहीं चढ़ सकता अपनी इच्छा से।
जानता हूँ सत्य
पर नहीं कर सकता उजागर उसे।
मेरी मृत्यु ही पर मुक्ति है मेरी।
जानता हूँ सीता का सत्य
पर समाधान तो नहीं हूँ न मैं
सिर्फ प्रश्न हूँ या फिर स्वीकार भर।
सूर्य को ओट में लिए
अंधकार हूँ मैं काले मेघों का।
भूली राहों का
एक भयावह जंगल हूँ मैं।
मुझे काट डालो
जला डालो मुझे।
ओ अग्नि देव
सीता ही नहीं -
विनती यह मेरी भी है।
हो जाओ प्रकट अग्निदेव !
हो जाओ प्रज्ज्वलित
हो सके
तो कर दो अस्तित्व ही समाप्त मेरा।
(पागल सा निकल जाता है। )
(पूर्ण अंधकार हो जाता है। फिर धीरे - धीरे अग्नि - प्रकाश फैलने लगता है और लपटों का दृष्य पूरे मंच पर छा जाता है। अग्नि प्रकट होता है। )

अग्नि : (विवश , दर्शकों की ओर देखकर )
अग्नि हूँ मैं
नहीं हूँ सूत्रधार
रह गया हूँ एक पात्र भर।
मुझे आना ही पड़ा है
फिर एक बार।
नहीं जानता
समय उपयुक्त है भी कि नहीं ?
क्या
कोई भी समझ पाएगा कभी
समझ पाएगा कोई भी युग
जब जब जला है मुझमें जो भी
मैं खुद जला हूँ।
गुजरा हूँ
उतनी ही उतनी ही पीड़ा से मैं भी।
मुझे लगा है अपना रूप
कभी कभी शाप भी।
यह कैसी परीक्षा है मेरी ?
रह गया हूँ एक पात्र भर।
क्या सचमुच
कोई भूमिका नहीं है मेरी स्वतंत्र ?
क्या सचमुच ?
(रुकता है। सब ओर देखता है। फिर सीता को संबोधित करता है। )
आओ सीता !
लोगों की दृष्टि में
आ जाओ मेरी गोद में।
पर हूँ आज मैं यंत्र ही
तुम्हारी पवित्रता की जाँच भर।
(अत्यंत विवश भाव के साथ )
कहाँ फँस गया हूँ मैं
स्थिर कर दिया है मुझे
किस जलधारा ने घेर कर
आज नहीं समझ पाएगा कोई भी।
शायद आएगा कोई युग
जब हर ओर आतंक होगा
जल रहा होगा
विश्वास धूँ धूँ अपनों तक का।
अपनों तक से मिलने के लिए
होगी जाँच पूरी।
गुजरना होगा
किसी न किसी जाँच-यंत्र से
शायद समझ पाएगा
समझ पाएगा तब ही
निरुपायता विश्वास की।
आज तो आओ सीता
लोगों की दृष्टि में
आ जाओ मेरी गोद में।

विश्वास : (भय से काँपते हुए )
नहीं। नहीं।
ऐसा मत कहो अग्नि देव !
कथन नहीं
यह शाप होगा विश्वास को।
वर्तमान में हारे इस विश्वास का
भविष्य तो छोड़ दिया होता ?
छोड़ दिया होता भविष्य तो
दाँव पर लगाने से ?
अच्छा होता
मुझे छोड़ दिया जाता महासमुद्र की परतों में।
भोज्य बनकर प्राणियों का
इतना निरर्थक तो न हुआ होता
कोई तो वर्तमान हुआ होता मेरा भी।
मैंने देखा है अग्निदेव
देखा है उन्हें
न वर्तमान है जिनका न भविष्य ही।
मुझे मत छोड़ो अग्निदेव
मत छोड़ो अब किसी भी युग के लिए
बनने को भोज्य
संदेह के बाणों का।
मैं नहीं चाहता
अब नहीं चाहता और देखना
खराब होते अपनी मिट्टी।
(चला जाता है। )

अग्नि : (ग्लानि के साथ )
आओ सीता ! आओ !
अब एक यंत्र भर हूँ मैं जाँच का।
यह हस्तक्षेप मेरा
कितना कृत्रिम है और अवांछित
मैं जानता हूँ
कितना ही क्यों न दिखता हो यंत्र स्वचालित
नियंत्रित तो होता ही है न कहीं न कहीं ?
किसी न किसी कक्ष में ?
आओ सीता ! आओ
आओ इस प्रकोष्ठ में
मुझे करनी ही होगी जाँच उस आरोप की
न जिसका बीज है न वृक्ष ही।
(अग्नि सीता का हाथ थामे प्रकोष्ठ में ले जाता है। सब मूक खड़े रहते हैं - प्रकोष्ठ की ओर देखते हुए। सर्वत्र मौन है। प्रकाश सन्नाटा और उत्सुकता पर )

उत्सुकता : (सन्नाटा को धकेलती सी )
नहीं सन्नाटा नहीं
यह तुम्हारी भूमिका नहीं
मेरी है - मुझ उत्सुकता की।
मौन तुम्हारा ही नहीं
सखा मेरा भी है।
(सन्नाटे को मंच से बाहर कर देती है )
कभी थी सीता प्रतिरूप मेरी
याद आती है अशोक वाटिका
आज राम हैं बिंब मेरा
देखो तो
देखो तो
(कुटिल सी मुस्कुराहट )
चेहरे लोगों के।
(प्रकाश उत्सुकता पर से हट जाता है। अग्नि सीता को लेकर प्रकोष्ठ के बाहर आते हैं। सीता का सिर झुका हुआ है और वह मौन है। सब लोग जिज्ञासा के साथ देख रहे हैं। राम भी टकटकी लगाए हुए हैं। एक ओर से बात करते हुए ' उद्घोषणा ' और ' सूचना ' का प्रवेश। )

सूचना : तुम कहो न उद्घोषणा
साँप तो नहीं सूँघ गया
तुम्हारे चहकने
और मटकने को।
(मुस्कराती हुई )
बोलो बोलो
छोड़ो भी यह लाज-शर्म ?
(गंभीर होकर )
पर मूल्य है भी कोई अब इन शब्दों का
युग के इस निर्लज्ज पड़ाव में ?

उद्घोषणा : नहीं
तुम्हीं कहो सूचना।
कितना थक गई हूँ न मैं ?
शायद हम दोनों ही ?
क्या अब भी
कोई शेष है भूमिका हमारी ?
आओ सूचना आओ
कम से कम
हम तो न बनें सहभागी
गिद्ध से।
जहाँ कहीं भी हो
पड़ा रहने दो शव विश्वास का।
खाने दो खाना हो जिन्हें
नोंचे
जिन्हें नोंचना हो।
हम तो चलें
आओ
हम क्यों बने सहभागी इस दृश्य की।

(चली जाती हैं। उदास - उदास , गंभीर - गंभीर। )

उत्सुकता : (गंभीर )
पर मेरी तो अभी शेष है भूमिका।
सब कुछ
होते हुए साफ भी
मेरी तो अभी सशेष है भूमिका।
उत्सुकता हूँ मैं।
परिचित कथानक में भी
हर आने वाला मोड़
प्रतीक्षा होती है मेरी ही।
जाएँ, जिन्हें जाना हो
मेरी तो अभी शेष है भूमिका।
(नाचता - कूदता सा ' हर्ष ' मंच पर प्रवेश करता है। उत्सुकता को गंभीर देखकर उसे संबोधित करता है। )

हर्ष : (चकित )
उत्सुकता ?
तुम ?
तुम अभी तक बनी हो गंभीर
यह क्या हो गया है तुम्हें ?
कहाँ हैं सूचना
और उद्घोषणा भी ?
क्या सभी भूल गए हैं अपनी भूमिकाएँ ।
क्या सचमुच याद नहीं
किसी को भी
संवाद अपने।
यह कैसे युग का संकेत है ?
कोई बंध ही नहीं रहा किसी सूत्र में।
क्यों लग रहा है मुझे
क्यों दिख रहे हैं मुझे
सब
स्वतंत्र होते हुए
अपनी-अपनी इकाई पर।
यह किस युग का संकेत है जहाँ
खोजे
नहीं मिल पा रहा है कोई केंद्र
मुझे क्यों बदलती नजर आ रही हैं
परिधियाँ
केंद्रों में
और केंद्र परिधियों में।
यह कैसी
कैसी देख रहा हूँ गडमड।
कहीं भ्रम तो नहीं है मेरी आँखों का ?
(दोनों हाथों से हथेलियाँ ढाँपकर )
मुझे मूँद ही लेनी चाहिए आँखें उस ओर से।
मैं क्यों देखूँ
क्यों देखूँ उस ओर
जो मेरा युग ही नहीं
और न संदर्भ ही।
(थोड़ी देर को चुप रहता है। सब की ओर देखता है। )
अरे !
सब मौन क्यों है ?
(इधर - उधर देखते हुए )
मुझे तो नहीं दीखता
कहीं सन्नाटा भी।
रहो
रहो चुप जिसे रहना है।
मैं क्यों रहूँ ?
मैं हर्ष हूँ - अपार हर्ष
कब रह सका हूँ मौन ?
मेरा नहीं है धर्म
रहना रहस्य की गुफाओं में।
फक्कड़ हूँ मैं
कब पच सकी है बात मेरे पेट में ?
अरे ! अरे !
देखो तो कितना दर्द हो रहा है मेरे पेट में।
(पेट की ओर देखते हुए और उस पर हाथ फेरते हुए )
कितना फूल गया है कंबख्त ?
कोई है
कोई है जो अभिव्यक्त करे
मेरे पेट को
मुक्त करे इसे पीड़ा से ?
(कूदता है, मंच पर विश्वास भी जाता है। बुढ़ाया - बुढ़ाया सा है। )

विश्वास : हाँ
है साँस अभी कुछ मुझ में।
चौंकिए मत।
मैं विश्वास ही हूँ।
कभी कभी
बिना आयु के भी देखा होगा
वृद्ध होते आपने।
विश्वास हूँ मैं
कम से कम
मुझ पर तो विश्वास कीजिए।
न सही व्यक्तियों पर
मुझ पर तो कीजिए।
(हर्ष को देखते हुए )
नाच ले हर्ष
नाच ले चाहे जितना
खबर मुझे भी है
बल्कि थी ही
पर नहीं हो सकता
छिछोरा मैं ?
मैं नहीं हूँ मात्र वर्तमान
न ही अतीत हूँ महज ।
फैलती है मेरी भूमिका भविष्य तक
भविष्य के भी भविष्य तक।
भले ही
कोई भविष्य न हो मेरा
कम से कम दीखता।
आज हुई है हत्या मेरी
मात्र अपमान नहीं,
हत्या भी।
मैं नहीं नाच सकता।
नाच ले हर्ष
मैं नहीं हूँ अबोध बालक।
(चला जाता है। पीछे - पीछे हर्ष भी। )

अग्नि : (सिर नीचा किए हुए सीता की ओर देखकर दृढ़ता के साथ )
तुम्हारा नहीं पुत्री
इतिहास देखना चाहता है
सिर नीचा किसी और का।
इन तमाम लोगों का
जो बन नहीं सके
आवाज तक प्रतिरोध की।
काश ये पत्थर से लोग
पत्थर ही बन जाते
और रोक पाते उस राह को
ले गई जो तुम्हें
परीक्षा-प्रकोष्ठ में।
तुम ऊँचा करो सिर, सीता
तुम ऊँचा करो।
लोक साक्षी हूँ मैं, न्यायाधीश
शुद्धता का माप हूँ।
सिर ऊँचा करो।
क्या सचमुच नहीं जानते थे ये लोग
और स्वयं राम भी
कि तुम पवित्र थी
जितनी की हो।
(संगीत - ध्वनि। सब के चेहरों पर राहत। प्रसन्नता भी। राम भी थोड़े तनावहीन। )

जन - समूह : जय हो
अग्नि की जय हो।

अग्नि : (झुँझलाकर )
फिर वही स्तुति !
और अगर
प्रतिकूल होता निर्णय
क्या तब भी जय होती ?
और अगर अपेक्षित थी अनुकूलता ही -
नहीं अभीप्सित
तो फिर
क्या अर्थ भी कोई है
इस जय को
कंधों पर उठाने का ?
(मंच के अगले सिरे पर आकर रुकता है। दर्शकों को देखते हुए )
सब में निहित है
कहीं न कहीं
जय और पराजय।
कहीं न कहीं निहित है
कसौटी भी
पहचान की।
कौन नहीं है अग्नि ?
क्या नहीं है स्वयं राम ?
क्या नहीं है
एक एक जन ?
या स्वयं सीता ही ?
फिर जय क्यों ?
क्यों यह अग्नि प्रणाली ?
काश कि मैं कर पाता
खंड खंड इसे
खंड-खंड
खंड-खंड
(चुप हो जाता है। जन - समूह भी चुप खड़ा है। )
(अग्नि फिर सीता को संबोधित करता है। सीता का सिर अब भी झुका है मानो गड़ी जा रही हो। )

अग्नि : (तीव्र स्वरों में )
मैं जानता हूँ
अन्याय है यह
पक्षपात है।
जानता हूँ
प्रतीक है एकछत्र सत्ता की
केवल तुम्हारी जाँच।
(उत्तेजित होकर )
और कह कर रहूँगा मैं आज
चुनौती है मेरी
आज नहीं रोक सकते स्वयं राम भी
(नरम पड़ते हुए )
पर जानता हूँ
तुम नहीं कर सकती माँग
राम की जाँच की।
नहीं कर सकती माँग
हिल जाएगा ब्रह्मांड ही।
कंधों पर टिके पुरुषार्थ के
यह ब्रह्मांड भी।
व्यक्ति का ही नहीं
पूरे युग का भी होता है
एक संस्कार फौलादी।
नहीं भेद पाओगी तुम
उसे इस युग में।
तुला पर तुम्हें ही चढ़ना होगा पुत्री
मैं नहीं जानता
कब तक।
(थोड़ी देर चुप रहता है )
पर कितना विशाल हो वक्ष समुद्र का
कितना ही सीमित कर दे निगाहों को
यह विशालता समुद्र की
छोर तो होता ही है न दूसरा भी।
प्रतीक्षा करो सीता
प्रतीक्षा करो उस युग की
जब तुम्हारा नहीं,
झुकेगा शीश
लोगों का
और राजा का भी।
(दृढ़ होकर राम की ओर देखते हुए )
आदेश है मेरा राम को
स्वीकार करें वे
तुम्हें
इसी क्षण।
ग्रहण करें एक दंड भी
नहीं कर सकेंगे राम
प्रायश्चित भी।
घुटेंगे
केवल घुटेंगे भीतर ही।
नहीं कर सकेंगे व्यक्त मन को।
मन के जल में लगी
उस आग को।
(राम सब कुछ स्वीकार करने की मुद्रा में। )
घुटूँगा स्वयं मैं भी
मैं भी, मृत न्याय के इस अध्याय पर।
(टूटी गति से प्रस्थान )
(सीता राम की ओर हल्का सा सिर उठाकर देखती है। राम सीता को स्वीकार करने की मुद्रा में। पर सीता विचार मग्न हो जाती है। )

सीता : (भारी मन से। आवाज पृ्ष्ठभूमि से )
देख रही हूँ भविष्य
अग्नि ने लिया है पक्ष सत्य का
स्वीकार भी हुई है सीता, राम को
पर कौन सी सीता ?
कहाँ रह गई है सीता
अब वही।
नहीं है सीता केवल पशु
वह सोचती भी है।
जुड़ा भी हो राम का खंडित विश्वास
पर नहीं होगा क्या
दिखावा भर ?
विश्वास जुड़ता भी कहाँ है टूट कर
रस्सी भी तो नहीं होता विश्वास।
कभी भी फुत्कार सकता है सर्प
खंडित विश्वास का।
राम नहीं है नारी।
सीता मर चुकी है
मर चुकी है सीता स्वयं।
कितनी भयंकर थी जाँच
अग्नि की ?
कितनी भयंकर थी
भीतर तक लगी आग और लपटें।
कितना भयंकर था
स्वाहा होते स्वाभिमान का दृश्य ?
ओह !
गोद में उठाए
यह शव स्वाभिमान का
सीता जीवित ही कहाँ है ?
(राम की ओर देखती है। राम सीता के लिए खड़े हुए हैं। )
कहाँ जीवित हैं
अब राम भी ?
मूर्छित संदेह को लाश सा उठाए
कहाँ जीवित हैं
मेरे राम भी ?
यह कैसा समझौता है
दो मृतकों का ?
यह कैसा समझौता है विधाता ?
आह !
(सीता धीमे से उसी भाव में एक पाँव आगे बढ़ाती है। राम की बाँहें फैल जाती हैं। )
(मंच पर पागल सा हर्ष )

हर्ष : (धीमी और प्रयत्न साध्य हँसी हँसते हुए )
आ हाहा हा हा !
आ हाहा हा हा !
क्या मैं भी हूँ
बस एक संज्ञा भर मृत
नहीं, नहीं
मैं हर्ष हूँ।
पर कुंठित क्यों है मेरे विशेषण।
किस रोग से ग्रसित है यह हँसी
यह खु्शी
सब।
यह कैसा समझौता है विधाता !
यह क्या था लोगों के चेहरों पर ?
मुख पर राम के ?
और स्वयं सीता के ?
यह कौन सा हर्ष था
जिसे खुद मैं नहीं पहचानता ?
(दर्शकों की ओर देखकर )
क्या आप पहचानते हैं ?
पहचाना आपने ?
(मुँह लटकाए माथा पकड़ कर बैठ जाता है। अधमरे संदेह का प्रवेश )

संदेह : (मरी हुई आवाज में )
आह ! आह !
न मृत हूँ मैं न जीवित ही
यह कैसा अभिशाप है युग को
न्याय होकर भी कहाँ हुआ न्याय ?
मैंने देखी है हत्या होते हुए विश्वास की
मैंने देखा है आत्महत्या की ओर जाते हुए अग्नि को।
आह !
कितनी क्रूर होती है बेवजह की गई जाँच भी !
कितनी अपमानजनक !
साक्षी हूँ मैं
(अपनी ओर इंगित कर )
साक्षी है यह संदेह।
ओ काल ! क्या छोड़ दिया गया है मुझे ? छोड़ दिया कारण को ही ?
अब कौन सी भूमिका है जिसे निभाना है।
थका हुआ मैं -
अब और नहीं उतरना चाहता मंच पर।
बस
अब और नहीं। और नहीं उतरना चाहता मंच पर।\
(गिर जाता है। पृथ्वी के प्रकट होने का दृश्य )

पृथ्वी : (व्यग्र )
ठहरो समय। ठहरो दिशाओं
अभी शेष है मंच पर आना मेरा।
शेष है मुझ पृथ्वी की भूमिका।
जानती हूँ अनाहूत हूँ मैं।
मुझे नहीं दी गई है कोई भूमिका
नहीं दिए गए हैं संवाद भी।
माँ हूँ पर - जीया है एक-एक क्षण मैंने पुत्री का
चुप रही हूँ मैं - प्रतिमा बनी सहिष्णुता की
मुझे याद है जनकवाटिका, याद है स्वयंवर का वह हर्षित समय खंड
भी।
याद है पंचवटी और भूली नहीं हूँ अशोक वाटिका भी।
छुप ही क्या सकता है मेरे विस्तार में ?
पर माँ भी तो हूँ मैं ब्याहता सीता की ?
क्या सचमुच हस्तक्षेप नहीं हो सकती माँ ब्याही पुत्री के समझौते में ?
किसी भी समझौते में ? क्या सचमुच नहीं ?
(संदेह की ओर देखकर )
नहीं
मैं हूँगी हस्तक्षेप भी। मैं हूँगी।
क्या यही है प्रतिफल समझौते का ?
यह कैसा परिणाम है अग्नि परीक्षा का ? संदेह मर कर भी जीवित !
(एक दिशा विशेष में देखते हुए जिधर राम - सीता गए थे )
नहीं नहीं पुत्री - भले ही न दी गई हो, कोई भूमिका माँ को
पर जीवित है जब तक यह अधमरा संदेह
नहीं हो सकती माँ भूमिकाहीन भी।
(संदेह कराहता है। उठने की कोशिश करता है पर गिर जाता है )

पृथ्वी : सावधान पुत्री ! सावधान !
खोजनी होगी स्वयं एक भूमिका अपने लिए
खोजने ही होंगे संवाद इस भूमिकाहीन मंच पर।
लो पकड़ कर भविष्य की गर्दन खाती है कसम यह माँ
मैं तुम्हारे साथ हूँ पुत्री, साथ हूँ हस्तक्षेप सी
अब और नहीं होगा कोई मृत समझौता।
(व्यंग्य से )
उहँ ! क्या खूब दिया है संरक्षण राम ने -
क्या इसीलिए ब्याहा था तुम्हें कि हरण हो तुम्हारा ?
क्या इसीलिए ब्याहा था तुम्हें कि एक दिन भी न भोगो
पति का ऐश्वर्य ?
क्या इसीलिए ब्याहा था क्या इसीलिए
कि पहुँचा दिया जाए तुझे एक मृत समझौते पर, झोंक दिया जाए
आग में ?
(सँभलती है )
जाओ पुत्री जाओ
नहीं हो सकता किसी काल का विस्तार मुझसे बड़ा।
न अयोध्या अछूती है मुझसे, न कोई वन भूमि ही।
साक्षी रहे युग-खंड
अब हुआ यदि कोई और अपमान, बंद हुई बाँहें राम की
तो यह पृथ्वी देगी गोद स्वाभिमान की, यह पृथ्वी तुम्हारी जननी,
पुत्री!
कोई अग्नि नहीं, कोई भी अग्नि नहीं, खंड-खंड अग्नि भी नहीं।
(इति )


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